SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमोऽङ्कः विदूषकः-(१) न तुह सयासे वि चिट्ठिस्सं, किंतु गरुअनिअबंभणीए चलणाण सेविस्सं। (इति गन्तुमिच्छति) कलहंसः- खरमुख! यदादिशति देवस्तत् क्रियताम्। (विदूषको निःश्वस्य यथास्थानमुपविशति) राजा- (स्वगतम्) यथाऽयमकाण्डे कुपितः प्रसन्नश्च, तथा ज्ञायते प्रत्यूहगर्भः स्वप्नार्थः तथापि यत्नैमित्तिको व्याख्यास्यति तत् प्रमाणम्। (प्रकाशम्) प्रियङ्कर! शीघ्रं प्रवेशय। प्रतीहारी- यदादिशति देवः (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) (प्रविश्य) नैमित्तिकः- स्वस्ति महाराजाय। विदूषक- नहीं, अब मैं तुम्हारे पास नहीं रहूँगा, अपि तु अपनी गौरवशाली पत्नी ब्राह्मणी के चरणों की सेवा करूँगा (यह कहकर जाना चाहता है)। कलहंस- खरमुख! महाराज की जैसी आज्ञा है तदनुरूप करो। (विदूषक जोर से साँस लेकर यथास्थान बैठ जाता है) राजा- (मन ही मन) जिसप्रकार से यह अनवसर में कुपित हो जाता, और प्रसन्न हो जाता है, उससे तो यही ज्ञात होता है कि मेरे स्वप्न का फल विघ्न युक्त है। फिर भी, नैमित्तिक जो (कुछ इस विषय में) व्याख्यान करेगा, वही प्रमाण होगा। (प्रकट में) प्रियङ्कर! (द्वार पर खड़े ब्राह्मण को) शीघ्र ले आओ। प्रतिहारी- महाराज की जैसी आज्ञा (यह कह कर निकल जाता है)। (प्रवेश कर) नैमित्तिक- महाराज का कल्याण हो। (१) न तव सकाशेऽपि स्थास्यामि, किन्तु निजगुरुब्राह्मण्याश्चरणौ सेविष्ये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy