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प्रथमोऽङ्कः राजा- (समतादवलोक्य कलहंसं प्रति) कटरि! आराममण्डनानां तरुखण्डानां नेत्रपात्रकलेह्यः कोऽपि चारिमा। तथाहि
आपाकपिञ्जरफलोत्करपिङ्गभासो भास्वत्करप्रसररोधिगुलुज्छभाजः। कूजपिकीकुलकुलायकलापवन्तः
प्रीणन्ति पश्य पथिकान् सहकारवृक्षाः।।११।। विदूषकः (१) एदं उज्जाणकेलिसरसीसीकरासारसिणिद्धच्छायं तरुखंडं, ता इत्थ एदु पिअवयस्सो।
राजा- (विलोक्य स्वगतम्) समुचितोऽयं प्रदेशः। पवित्रसरसप्रदेशप्रकाशनीयः खलु शुभोदर्कः स्वप्नः। (प्रकाशम्, अपवार्य कलहंसं प्रति) किमद्यापि चिरयति नैमित्तिकः?
कलहंसः- एष इदानीमायाति।
राजा- (सभी तरफ देखकर कलहंस से) अहा! उद्यान को शोभित करने वाले वृक्षों की, नयन रूपी पात्र से चाटने योग्य, अपूर्व शोभा है। जैसा कि
देखो, पूर्णरूप से पके हुए सुनहरे फलों के ढेर से पिङ्गल कान्ति वाले सूर्य की किरणों के विस्तार को रोकने के लिए जिन्होंने गुच्छे का रूप धारण कर लिया है, तथा जहाँ शब्द करते हुए कोकिल समूह अपने खोंतों में आलाप कर रहे हैं, ऐसे आम्रवृक्ष पथिकों को आनन्दित कर रहे हैं।।११।।
विदूषक- यह उद्यान के क्रीडा से सरोवर के जलकणों के धारासम्पात से स्निग्ध छाया वाला वृक्ष समूह है, अत: प्रिय मित्र यहाँ आवें।
राजा- (देखकर अपने मन में) यह स्थान तो बहुत ही उपयुक्त है। यह पवित्र तथा सुन्दर स्थान भविष्य में शुभ फल प्रदान करने वाला, जो मेरा स्वप्न है, उसके प्रकाशन के योग्य है। (प्रकट में, अलग हटकर कलहंस से) नैमित्तिक अभी तक नहीं आया है?
कलहंस- वह तो आ ही रहा है।
(१) एतदुद्यानकेलिसरसीसीकरासारस्निग्धच्छायं तरुखण्डम्, तदत्रैतु प्रियवयस्यः।
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