________________
नलविलासे
आमुखम्। (ततः प्रविशति रजा कलहंसादिकश्च परिवार:) राजा- (वयस्य कलहंस इत्यादि पुनः पठति)
कलहंस:- हंहो! खरमुख! गवेषय कमपि देवस्य विश्रामहेतुमारामप्रदेशम्। (प्रविश्य)
विदूषकः-(१) भो कलहंस! अणेगकरालवालविहुरे आरामकुहरे एयंमि एगागी भयामि, ता न गवेसइस्सं।
राजाः- (स्मित्वा) वयस्य! महावीरः खल्वसि, ततस्त्वमेव (व) विभेषि।
विदूषकः- (२) साहु पियवयस्सेण सुमराविदम्हि। मए जाणिदं अहं भोयणलंपडो बंभणो न गवेसइस्सं (इति परिक्रामति)
-
(प्रस्तावना समाप्त) (पश्चात् कलहंसादि परिजन के साथ राजा नल प्रवेश करता है)
राजा- (मित्र कलहंस)! ‘परमेश्वरस्य युगादिदेवस्य.' इत्यादि वाक्य का पुनः उच्चारण करता है।)
कलहंस- अरे खरमुख! महाराज के विश्राम हेतु उद्यान के किसी प्रदेश का अन्वेषण करो।
(प्रवेश करके) विदषक- अरे कलहंस! अनेक प्रकार के भयंकर सो से व्याप्त बिलवाले इस जंगल में मैं अकेला डरता हूँ, अत: अन्वेषण नहीं करूँगा।
राजा- (हँसकर) मित्र! तुम तो बहुत वीर हो, फिर भी तुम इस प्रकार से डरते हो।
विदूषक- प्रिय मित्र के द्वारा अच्छे समय में स्मरण किया गया हूँ। (हाँ,हाँ) जानता हूँ कि मैं भोजन रसिक ब्राह्मण हूँ, अत: (विश्राम स्थान का) अन्वेषण नहीं करूँगा। (ऐसा कहकर घूमता है)
(१) भो कलहंस! अनेककरालव्यालविधुरे आरामकुहरे एतस्मिन् एकाकी बिभेमि, तन्न गवेषयिष्यामि।
(२) साधु प्रियवयस्येन स्मारितोऽस्मि। मया ज्ञातम्, अहं भोजनलम्पटो ब्राह्मणो न गवेषयिष्यामि।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org