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________________ प्रथमोऽङ्कः प्रबन्धानाधातुं नवभणितिवैदग्ध्यमधुरान् कवीन्द्रा निस्तन्द्राः कति नहि मुरारिप्रभृतयः। ऋते रामान्नान्यः किमुत परकोटौ घटयितुं रसान् नाट्यप्राणान् पटुरिति वितर्को मनसि नः।।३।। अपरं च प्रबन्धा इक्षवत् प्रायो हीयमानरसाः क्रमात्। कृतिस्तु रामचन्द्रस्य सर्वा स्वादुः पुरः पुरः।।४।। नटः भाव! अयमर्थः सत्य एव। यतः सङ्ख्यायामिव काकुत्स्थ-यादवेन्द्रप्रबन्धयोः । वर्धमानैर्गुणैरङ्काः प्रथमानतिशेरते।।५।। किन्तु रघु-यदुचरितं निसर्गतोऽपि रमणीयम्, अतस्तत्र सुकरो रसनिवेशः। नलचरितं तु न तथा, ततः साशकोऽस्मि। तक पहुँचाने में समर्थ रचना को प्रस्तुत करने वाले तो कवि रामचन्द्रसूरि ही हैं, अन्य नहीं इसलिए हमें मन में सन्देह नहीं करना चाहिए।।३।। और भी-- प्राय: प्रबन्ध (दृश्यकाव्य तथा श्रव्यकाव्य) क्रम से गन्ने की तरह (प्रतिपर्व) हीयमान, अर्थात् नीरस होते जाते हैं, परन्तु कवि रामचन्द्रसूरि की सभी कृतियाँ आगेआगे (उत्तरोत्तर) रसास्वादन कराने वाली हैं।।४।। नट- आर्य! यह बात सच है। क्योंकि संख्याओं की तरह रघुवंशी और यदुवंशियों के चरित को लेकर बनाये गये प्रबन्धों (दृश्यकाव्य एवं श्रव्यकाव्य) में (उनके) गुणों के आधिक्य से अङ्क (सर्ग) पूर्वपूर्ववर्ती अंकों से बढ़कर विस्तार को प्राप्त करते (जाता) है।।५।। किन्तु रघुवंशी और यदुवंशियों का चरित्र नैसर्गिक होने से भी रमणीय है, इसलिए उनके चरितवाले प्रबन्धों में रसाभिनिवेश, अर्थात् रस की योजना करना सरल है। परन्तु नल का चरित्र ऐसा नहीं है। (रघुवंशी और यदुवंशियों की तरह विलक्षण नहीं है) इसलिए सशङ्कित हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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