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________________ xxxii करने का उद्देश्य जहाँ अङ्क में अदर्शनीय शयन-आलिङ्गन-चुम्बन-स्नान-भोजन आदिवस्तु की उपेक्षा करना है, वहीं निर्वहण सन्धि में अद्भुत रस की योजना की अनिवार्यता भी है। नलविलासे इसके बाद नल-दमयन्ती के पुनर्मिलन की घटना से लेकर नगर वासियों तथा राजा भीम एवं दमयन्ती की माता के हर्ष का वर्णन मूल कथा में तथा नाटकीय आख्यान वस्तु में समान है । किन्तु विदर्भदेश में दमयन्ती के साथ राजा नल का रहना तथा उसके बाद सेना लेकर निषधदेश पर अधिकार पाने के लिए राजा नल का गमन इस मूल कथा और नाटकीय आख्यान वस्तु में समानता तो है, पर मूलकथा में वर्णित नल का एक मास तक विदर्भदेश में रहने के वृत्तान्त को कवि ने इसलिए छोड़ दिया कि एक अङ्क में एक ही दिन में घटित घटनाओं का चित्रण करना होता है । और एक दिन में समाप्त नहीं होने वाली घटना की सूचना अर्थोपक्षेपक द्वारा दी जाती है। यहाँ विशेष रूप से ध्यातव्य है कि मूल कथा में जो उक्त प्रकार से कवि द्वारा परिवर्तन किये गए हैं, उनका मुख्य कारण नाट्यशास्त्रीय नियम हैं। क्योंकि नाटकीय आख्यानवस्तु का वह मुख्य प्रयोजन जो नाटक के आरम्भ में बीज रूप में उपन्यस्त होता है उसको ध्यान में रखकर ही नाटकीय आख्यान - वस्तु का निबन्धन करना पड़ता है। उस बीज रूपी कथांश से सम्बन्ध बनाये रखने के लिए ही बिन्दु आदि अर्थप्रकृति की योजना की जाती है । इस मुख्य बीज को देखकर उसे प्राप्त करने के लिए ही नायक का व्यापार आरम्भादि पञ्च-अवस्था से युक्त होता है। साथ ही नाटकीय आख्यान वस्तु को सुशृङ्खल एवं रसमय बनाने के लिए ही नाटक में मुखादि पञ्च सन्धियों की योजना की जाती है। दूसरे शब्दों में मुखादि सन्धियों से युक्त नाटकीय आख्यानवस्तु उसी प्रकार शोभन होती है, जैसे शरीर के अङ्गों का जोड़ ( वनावट) सुन्दर होने से मनुष्य देखने में सुन्दर दिखाई पड़ता है। उक्त पञ्च अर्थप्रकृति पञ्चकार्यावस्था पञ्च सन्धि एवं सन्ध्यङ्गों के प्रयोग को ध्यान में रखकर ही मूलकथा के उस अंश को, जो आवश्यक तो है किन्तु नीरस होता है, उसकी सूचना के लिए अर्थोपक्षेपक का प्रयोग किया जाता है। साथ ही नाटकीय आख्यानवस्तु नटों के माध्यम से कथोपकथन द्वारा प्रस्तुत किया जाता है इसलिए अनपेक्षित अंश का त्याग किया जाता है या इसकी सूचना दी जाती है। साथ ही नाटकीय आख्यानवस्तु का अभिनय जिस पर प्रधान रूप से आधृत होता है वह है- नाट्यशास्त्रीय - नियम, अभिनय की मर्यादा, सामाजिक मर्यादा तथा आख्यानवस्तु की रसमयता एवं प्रभविष्णुता, जिसकी उपेक्षा करना किसी कुशल नाट्यकार के लिए सम्भव ही नहीं होता है। इसीलिए महाभारत, रामायण आदि से नाटकीय वस्तु के लिए मूल कथा ग्रहण करके भी कवि उसमें परिवर्तन करता है। क्योंकि नाटक में वह अंश कभी भी प्रयोग के योग्य नहीं होता है, जो वस्तुतः यथार्थ होता है किन्तु नायक के चरित में अपकर्ष का द्योतक होता है। जैसे— रामायण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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