________________
नलविलासे
उस सभामण्डप में जाता है और राजा की आज्ञा से अपना आसन ग्रहण करता है । तत्पश्चात् नटों द्वारा अभिनय आरम्भ होता, जिसमें वन में अकेली छोड़ दी गई दमयन्ती राजा नल को ढूंढती हुई एक सरोवर के समीप मूच्छित होकर गिर जाती है। उसी समय भीलों के झुण्ड में से एक आदमी जल की खोज में उस सरोवर के समीप आता है, और मूच्छित अवस्था में पड़ी दमयन्ती को देखकर वह अपने मन में विचार करके कि कहीं इसे इस अवस्था में हिंसक जीव खा न जाय अपने अन्य मित्रों को बुलाता है तथा जल छिड़ककर दमयन्ती को चेतना में लाता है। चैतन्य अवस्था में उस भी द्वारा दमयन्ती से उसका परिचय तथा इस अवस्था को उसने कैसे प्राप्त किया ऐसा पूछे जाने पर दमयन्ती सारी घटना कह सुनाती है। मैं इस वन में अपने स्वामी को ढूंढ रही हूँ यह कहकर अपने पति नल का अन्वेषण करने लगती है। इसी क्रम में उसके पैर में काँटा चुभ जाता है जिससे वह विह्वल होकर करुण विलाप करती हुई सभी से अपने पैर के काँटे को निकालने के लिए कहती है । वह भील ज्यों ही काँटा निकालने के लिए प्रवृत्त होता है तभी दमयन्ती उसे यह कहकर रोक देती है। कि तुम छोड़ दो, मैं स्वयं निकाल लूँगी क्योंकि पतिव्रता स्त्री के शरीर को परपुरुष द्वारा छूना अनुचित है । दमयन्ती के इस करूण विलाप को देखकर राजा नल जहाँ आश्चर्य चकित होते हैं वहीं राजा दधिपर्ण (ऋतुपर्ण) दमयन्ती के दुःख से अत्यन्त दुःखी होकर उससे कहते हैं कि हे देवि ! जिस पापी ने अकारण तुम्हें वन में छोड़ दिया, उस दुष्टात्मा का नाम लेने योग्य नहीं है। इस घटना को विशेष रूप से मूलकृति नलविलास में ही देखना चाहिए। इसी प्रकार करुण विलाप करती हुई उस दमयन्ती ने वृक्षों की आड़ में एक सिंह को देखा। उसे देखकर दमयन्ती उस सिंह के पास जाती है और उससे कहती है कि हे सिंह ! या तो तुम मुझे मेरे पति नल का सन्देश कहकर प्रसन्न करो अथवा विरह व्यथा से जलते हुए मेरे इस शरीर को खाकर मेरे दुःखों का निवारण करो । यह देख अभिनय देखने के लिए उपस्थित राजा दधिपर्ण (ऋतुपर्ण) के साथ जीवलक और सपर्ण आदि तो अत्यन्त दुःखी हो ही गये साथ ही बाहुक रूप में वहाँ उपस्थित राजा नल भी सब कुछ भूल गये तथा दौड़कर उस सिंह को सम्बोधित कर कहने लगे कि हे सिंह ! इस अबला की दीन-दशा देखकर तुम्हें इसे खाना नहीं चाहिए, क्योंकि विपत्ति में पड़ी अबला की रक्षा करना ही समर्थ जन के लिए न्यायोचित है । किन्तु यदि भूख की क्षुधा तुम्हें अनुचित मार्ग पर प्रवृत्त होने से नहीं रोक रही है, तो इस अबला के बदले मुझे खाकर अपनी क्षुधा की तृप्ति करो। इस प्रकार से इस अभिनय का अन्त होता है और इसी समय विदर्भदेश से दमयन्ती द्वारा प्रेषित ब्राह्मण अपने आने की सूचना राजा दधिपूर्ण (ऋतुपर्ण) को देता है।
XXX
यहाँ, दमयन्ती का चेदिदेश पहुँचने से लेकर बाहुक के विषय में पर्णाद से जानना रूपी मूलकथा में परिवर्तन करने के दो कारण हैं- प्रथम तो यह वृत्तान्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org