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भूमिका में बैठाकर अत्यन्त दुःखी चित्त वाला जोर से विलाप करने लगा। इस क्रम में अपने प्रकट हो जाने के भय से बाहक ने केशिनी से कहा कि हमारे बच्चे भी इन दोनों के समान ही हैं। इसलिए इन्हें देखकर मैं रोने लगा। हे किशिनि! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम यहाँ से यथाशीघ्र चली जाओ। क्योंकि मैं परदेशी हूँ तथा हमारे पास बार-बार तुम्हारे आने से लोग अन्यथा शङ्का करने लगेंगे।'
इसके बाद जब केशिनी ने दमयन्ती से नल के समस्त विकारों को कह सुनाया तो दमयन्ती ने केशिनी को माता के पास यह कहकर भेजा कि तुम मेरी माता से कहना कि दमयन्ती ने बाहुक की अनेक प्रकार से परीक्षा ली जिससे ज्ञात हुआ कि वे नल ही हैं, किन्तु उनके विकृत रूप के कारण सन्देह है। अत: उसके समाधान के लिए आप या तो बाहुक को ही महल में बुला दें अथवा मुझे जाने की अनुमति प्रदान करें। अब मेरे इस वृत्तान्त को पिता चाहे जान लें अथवा न जानें। आप उक्त दो उपायों में से कोई एक उपाय करें। दमयन्ती के इस अभिप्राय को उसकी माता से जानकर राजा भीम ने भी दमयन्ती को बाहुक की परीक्षा लेने की अनुमति दे दी। माता-पिता की आज्ञा पाकर नल को वहाँ बुलाया जहाँ दमयन्ती रहती थी। नल की शोचनीय अवस्था देखकर दमयन्ती करुण-विलाप करने लगी और उस बाहुक से नल द्वारा दमयन्ती परित्याग का वृत्तान्त सुनाने लगी। तब शोक से व्याकुल करुण विलाप करने वाली दमयन्ती से बाहुक ने कहा- हे देवि! जिस कर्म से मेरा राज्य नष्ट हुआ था, वह कर्म मैंने नहीं किया था और जिसके कारण मैंने तुम्हें छोड़ा था, वह कर्म भी कलि ने ही किया था। हे देवि! पहले वन में रहती हुई तुम बहुत दुःखी हो गई थी; तब तुमने उस कलि को शाप देकर पीड़ित किया था। वही कलि तुम्हारे शाप से जलता हुआ मेरे शरीर में वास करता था। मेरे पुरुषार्थ और तपस्या से उसकी पराजय हुई अब हम दोनों के इस दुःख का अन्त हुआ ही समझो। क्योंकि, अब वह पापी कलि मेरे शरीर को छोड़कर चला गया। और मैं तुम्हारे निमित्त ही यहाँ आया हूँ, न कि किसी दूसरे प्रयोजन से। और हे देवि! महाराज ऋतुपर्ण ने जब भीमनरेश की आज्ञा से पृथिवी पर घूमने वाले दूत की यह घोषणा सुनी कि भीमपुत्री दमयन्ती अपनी इच्छा से काम के अनुकूल अपने योग्य दूसरा पति वरण करेगी, तो वे महाराज तुम्हें प्राप्त करने के लिए ही यहाँ तक आये हैं।
नल मुख से यह वचन सुनकर डर से कांपती हुई दमयन्ती बोली- नाथ! आपका अन्वेषण कराने के लिए ही मैंने ब्राह्मणों को भेजा था। उन्हीं ब्राह्मणों में से पर्णाद नामक ब्राह्मण ने मेरे द्वारा कहे गये प्रश्नों का उत्तर आप से प्राप्त करके अयोध्या १. महाभारत, वनपर्व ७५/१-२८। २. महाभारत, वनपर्व ७६/१-२१ । ३. महाभारत, वनपर्व ७६/२१-२४।
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