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________________ भूमिका आपको अश्वविद्या सिखला देता हूँ और आप अपनी उक्त विद्या मुझे सिखला दें। यह सुनकर राजा ऋतुपर्ण ने तथास्तु कहकर अपनी विद्या नल को सिखला दी तथा नल से अश्वविद्या स्वयं ग्रहण की। इसप्रकार जुए का तत्त्व सीखते ही नल के शरीर में प्रविष्ट कलि कर्कोटक सांप विष का मुख से लगातार वमन करते हुए बाहर निकला और विषरहित होने के कारण उसने अपना रूप धारण कर लिया। यह देखकर अत्यन्त कुपित नल ने कलिको शाप देना चाहा किन्तु कलि हाथ जोड़कर नल से क्षमा माँगने लगा और बोला मैं आपको बहुत यश प्रदान करूंगा। मुझे अब शाप न दें क्योंकि दमयन्ती का परित्याग करते समय दमयन्ती ने जो मुझे शाप दिया था उसी से मैं बहुत पीड़ित हो चुका हूँ। हे नल! मैं सत्य कहता हूँ जो मनुष्य आलस्यरहित होकर आपके चरित्र का वर्णन करेगा; उसको मुझसे उत्पन्न हुआ दुःख कदापि नहीं होगा। यह वचन सुनकर नल ने अपने क्रोध का संवरण किया और वह कलि उसी बहेड़े के वृक्ष में प्रविष्ट हो गया । दोनों के परस्पर वार्तालाप को किसी ने भी नहीं सुन पाया। तत्पश्चात् राजा नल रथ पर चढ़कर विदर्भदेश को ऋतुपर्ण के साथ वहाँ से प्रस्थान किया । २ को इसके बाद सन्ध्याकाल में विदर्भनगर के द्वार पर पहुँचे राजा ऋतुपर्ण की सूचना द्वारपालों ने राजा भीम को दी। राजा भीम की आज्ञानुसार कुण्डिन नगरी में प्रवेश करते 'हुए नल द्वारा हांके जा रहे रथ पर आरूढ़ ऋतुपर्ण के रथचक्र की गम्भीर ध्वनि 'सुनकर नल के वे अश्व, जिन्हें राजा नल पूर्व में हाँकते थे, अत्यधिक प्रसन्न होकर उसी तरफ देखने लगे। साथ ही पूर्वपरिचित रथध्वनि को सुनकर दमयन्ती भी महलों के ऊपर चढ़कर देखने लगी। किन्तु ऋतुपर्ण के रथ पर विकृत रूप वाले बाहुक के रूप में नल को देखकर वह भ्रम में पड़ गयी और सोचने लगी कदाचित् राजा ऋतुपर्ण भील के समान ही हैं इसलिए रथचक्र से इस प्रकार की ध्वनि का निकलना सम्भव है । अतः अपने मनोरथ को भग्न होते देखकर पूर्व का स्मरण कर विलाप करती हुई वह चेतना रहित हो गई। इधर कुण्डिन नगरी में प्रवेश करने के बाद जब ऋतुपर्ण ने राजा भीम को देखा, तो रथ से उतरकर भीम से मिलने चले। राजा भीम ने ऋतुपर्ण का उचित सत्कार किया और कुण्डिन नगरी आने का कारण ऋतुपर्ण से पूछा, क्योंकि राजा भीम नहीं जानते थे कि हमारी पुत्री ने दूत भेजकर नल का अन्वेषण करने के निमित्त ऋतुपर्ण को यहाँ बुलाया है। ऋतुपर्ण ने जब देखा कि यहाँ न तो कोई अन्य राजा ही हैं, और न राजपुत्र और न स्वयंवर की कोई तैयारी, तो उन्होंने कहा मैं तो १. महाभारत, वनपर्व ७२ / १-२६ । २. महाभारत, वनपर्व ७२/२६-४३॥ ३. महाभारत, वनपर्व ७३ / १-३४ । xxi Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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