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नलविलासे सूर्योदय होते ही वह पति का वरण कर लेगी। दमयन्ती द्वारा कहे गये उक्त वचन अयोध्या पहुँचकर सुदेव ने राजा ऋतुपर्ण को कह सुनाया।
तत्पश्चात् राजा ऋतुपर्ण ने दमयन्ती स्वयंवर का वृत्तान्त बाहुक को बुलाकर कह सुनाया और मैं (ऋतुपर्ण) एक ही दिन में विदर्भदेश पहुँचना चाहता हूँ, क्या यह सम्भव हो सकता है। दमयन्ती स्वयंवर का वृत्तान्त सुनकर अत्यन्त दु:खी राजा नल सोचने लगे कि क्या यह दमयन्ती निश्चितरूप से दूसरे पति का वरण करेगी अथवा इसी बहाने मेरा अन्वेषण करना चाहती है। अच्छा, वास्तविकता का ज्ञान तो वहाँ पहुँचने पर ही होगा। यह सोचकर बोले हे राजन्! आप चिन्ता न करें। आप आज ही विदर्भदेश पहुंचेंगे मैं ऐसा प्रयत्न करता हूँ। तत्पश्चात् ऋतुपर्ण की आज्ञा से नल घुड़साल में से सिन्धु देशोत्पन्न, तेज, बल और शील से भरे हुए, दशभौरियों से युक्त, मार्ग में चलने में समर्थ पर दुर्बल घोड़ों को बाहर निकाल लाये। इसे देखकर ऋतुपर्ण के मन में उत्पन सन्देह का नल ने निराकरण किया। तत्पश्चात् अश्वविद्या में चतुर नल ने राजा ऋतुपर्ण को रथ पर बैठाकर वार्ष्णेय नामक सारथि के साथ उन अश्वों को रथ सहित आकाश मार्ग में उड़ाया। बाहुक (नल) की इस निपुणता को देखकर ऋतुपर्ण तो आश्चर्यचकित थे ही साथ ही वार्ष्णेय यह सोचने लगा कि यह बाहुक कहीं इन्द्र का सारथि मातलि अथवा अश्वशास्त्रज्ञ शालिहोत्र ही तो नहीं है। अथवा अश्वकला के मर्मज्ञ इस रूप में कहीं ये महाराज नल ही तो नहीं हैं। ऐसा सोचता हुआ वह वाष्र्णेय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि बाहुक के रूप में निश्चित रूप से ये महाराज नल ही हैं, कोई अन्य नहीं। उधर राजा ऋतुपर्ण उस बाहुक के बल, वीर्य, उत्साह और घोड़ों को पकड़ने की रीति और परमयत्न को देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए।२।
इस प्रकार आकाश मार्ग से जा रहे राजा ऋतुपर्ण का दुपट्टा भूमि पर गिर गया जिसे लेने की इच्छा वाले राज' से बाहुक (नल) ने कहा इस समय तो यह असम्भव है क्योंकि उस स्थान से हम चार कोस आगे निकल चुके हैं। नल की इस चातुरी को देख कर मार्ग में एक बहेड़े के वृक्ष में फलों को देखकर ऋतुपर्ण ने अपनी अङ्कविद्या की कुशलता से उस वृक्ष में लगे फल, पत्ते, फूल और गिरे हुए फल, पते तथा फूल की संख्या बतायी। तब नल ने रथ को मार्ग में रोककर उस पेड़ की एक शाखा को काटकर फल और पत्ते की गिनती की तो वह उतने ही थे जितने की ऋतुपर्ण ने कहे थे। यह देख आचर्यचकित नल ने ऋतुपर्ण से उस विद्या को सीखने की इच्छा व्यक्त की तो राजा ऋतुपर्ण बोले की हे बाहुक! तुम मुझको पासे के रहस्य को जानने वाला और गिनने की विद्या में निपुण जानो। यह सुनकर बाहुक ने कहा- हे राजन्! मैं
१. महाभारत, वनपर्व ७०/१-२७। २. महाभारत, वनपर्व ७१/१-३४॥
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