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भूमिका
xvii
जीतते ही रहेंगे। हे राजन! अब आप यहाँ से “बाहुक नामक सूत हूँ" इस प्रकार कहते हुए आज ही सुन्दर अयोध्यानगरी में ऋतुपर्ण के पास जाइये क्योंकि वह जुए की विद्या में बहुत निपुण हैं। '
उक्त प्रकार से कहता हुआ पुनः वह कर्कोटक नाग राजा नल से बोला- हे राजन् ! वह अयोध्यानरेश आपसे अश्वविद्या सीखकर आपको जुए की विद्या तो सिखा ही देंगे साथ ही वे आपके मित्र भी हो जाएँगे। अब आप शोक न करें और अयोध्या के लिए प्रस्थान करें। तत्पश्चात् वह नाग राजा नल को एक वस्त्र देकर बोला हे राजन्! आप जब अपना वास्तविक रूप प्राप्त करना चाहेंगे उस समय इस वस्त्र को ओढ़कर मेरा स्मरण करेंगे और आपको अपना वास्तविक रूप प्राप्त हो जायेगा । २
इतना कहकर उस नाग के अन्तर्धान हो जाने के बाद राजा नल उस स्थान से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण के नगर अयोध्या में पहुँचे तथा उस कर्कोटक नाग के कथनानुसार अपना परिचय देते हुए बोले कि हे राजन् ऋतुपर्ण! इस जगत् में जितनी शिल्पविद्या हैं, मैं उसमें निष्णात हूँ। अतः आप मुझे नौकर रख लीजिये। बाहुक के इस वचन को सुनकर राजा ऋतुपर्ण बोले कि मेरी भी यही इच्छा है, अतः तुम मेरे यहाँ रहो। हे सूत! तुम ऐसा कोई उपाय करो जिससे मेरे रथ के घोड़े शीघ्र चल सकें। तुम आज से मेरी घुड़साल के स्वामी हुए तथा आज से तुम्हें दस हजार सोने की मुद्रा मिला करेंगी। राजा के ऐसे वचन सुनकर राजा नल वार्ष्णेय और जीवलक के साथ ऋतुपर्ण के नगर अयोध्या में निवास करते हुए सदा दमयन्ती की चिन्ता करते रहते थे। निरन्तर दमयन्ती विषयक चिन्ता की बात जानकर जीवलक ने नल से इस बारे में जब पूछा तो नल ने अपना नाम न लेकर किसी मन्दबुद्धि वाले पुरुष की कथा के रूप में अपना पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया ।
इस प्रकार समय के व्यतीत होने पर राजा भीम ने अपनी बेटी दमयन्ती एवं जमाता नल को देखने की इच्छा से बहुत सारा धन देकर ब्राह्मणों को निषधदेश भेजा । और उन ब्राह्मणों से कहा कि जो कोई दमयन्ती और नल का अन्वेषण कर मुझे इसकी सूचना देगा उसे मैं बहुत धन, गाय, एवं एक गाँव दक्षिणा में दूँगा। यह सुनकर सभी ब्राह्मण उन दोनों का अन्वेषण करने के लिए विभिन्न दिशाओं में चले गये। उन ब्राह्मणों में से सुदेव नामक एक ब्राह्मण चेदिपुरी में जा पहुँचा जहाँ सुनन्दा के साथ दमयन्ती बैठी हुई थी। उसे देखकर सुदेव यह जान गया कि यही हमारे नरेश की पुत्री दमयन्ती है, जो अपने पति के वियोग में प्रिय लगने वाले सब कामों और भोगों से हीन और
१. महाभारत, वनपर्व ६६ /१-२०।
२. महाभारत, वनपर्व ६६ / २०-२४ ।
३. महाभारत, वनपर्व, ६७ / १ - १९ ।
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