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________________ xvi नलविलासे सारा वृत्तान्त कह सुनाया और बोली कि अपने पति नल का अन्वेषण करती हुई यहाँ तक पहुँच गई हूँ। यह सुनकर राजमाता स्वयं दुःखी हो गई और दमयन्ती से बोली कि अब तुम मेरे पास ही रहो और तुम्हारे पति का अन्वेषण हमारे नगरवासी करेंगे। राजमाता के उक्त वचन को सुनकर दमयन्ती ने कहा हे माता ! मैं किसी का जूठा नहीं खाऊँगी, किसी के पैर नहीं धोऊँगी और किसी दूसरे पुरुष से नहीं बोलूँगी तथा यदि कोई मेरी इच्छा करे तो वह पुरुष आप से प्राण दण्ड पावे इस तरह का आपसे आश्वासन पाकर ही मैं यहाँ रह सकती हूँ अन्यथा नहीं। यह सुनकर राजमाता अत्यन्त प्रसन्न हुई और बोली कि तुम्हारा यह व्रत अत्युत्तम है। मैं तुम्हारी सब बातों को पूरा करूंगी। यह कहकर राजमाता ने अपनी पुत्री सुनन्दा से कहा कि हे सुनन्दे ! इस सैरन्ध्री को साक्षात् देवरूपिणी समझो, तुम प्रसन्न चित्त से इसके साथ रहकर आनन्द करो । २ इधर दमयन्ती का परित्याग कर चुके वन में घूमने वाले राजा नल ने वन में प्रज्वलित दावाग्नि को देखा जिसके मध्य से यह सुनाई पड़ रहा था कि हे नल! शीघ्र आओ और मेरी रक्षा करो, तथा कुछ भय मत करो। इतना सुनते ही राजा नल उस अग्नि के मध्य प्रविष्ट हुए जहाँ एक सर्पों का राजा कुण्डली मारकर बैठा था। नल को देखकर वह सर्प बोला मैं कर्कोटक नामक नाग हूँ और गुरु के शाप से एक पग भी चलने में असमर्थ हूँ अतः तुम मुझे यहाँ से बाहर निकालो। इतना कहने के बाद अंगूठे के समान शरीर वाले बने उस नाग को नल अग्नि से रहित स्थान में ले गये जहाँ से वह नाग आकाश में जाकर बोला हे नल! आप अपने कुछ कदमों को गिन कर चलें क्योंकि ऐसा करने से मैं आपका अत्यन्त प्रिय कार्य करूँगा। यह सुनकर राजा नल अपने कदमों को गिनते हुए जब दसवें कदम पर पहुँचे तो उसी समय उस कर्कोटक नाग ने उन्हें काट लिया जिससे नल का सुन्दर रूप विकृत हो गया। राजा नल को आश्चर्यचकित देखकर सुन्दर रूप धारण कर लेने वाला वह नाग बोला कि लोग आप को पहचान न सकें इसीलिए मैंने आपके वास्तविक रूप को नष्ट कर दिया। हे राजन्! आप जिसके कारण छल में पड़कर इस दुःख को भोग रहे हैं, मेरे विष के कारण वह कलि आपके अन्दर बहुत दुःख पाता हुआ रहेगा । और मेरे विष से भरे आपके शरीर को जबतक वह कलि नहीं छोड़ेगा तबतक वह महादुःख सहता हुआ आपके अन्दर निवास करेगा। यही नहीं अब आपको न तो हिंसक जीवों से किसी प्रकार का भय होगा और न वेद जानने वालों से ही किसी प्रकार का भय होगा । विष कारण होने वाली पीड़ा का भी आपको अनुभव नहीं होगा तथा आप युद्ध में निरन्तर १. महाभारत, वनपर्व ६५ / २३ - ३६ । २. महाभारत, वनपर्व ६५ / ३७-४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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