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भूमिका
कुछ चिन्ता करने लगे और कुछ चिल्लाने लगे, कुछ हंसने लगे, कोई उसकी निन्दा करने लगे, कुछ लोगों ने उस पर दया दिखलाई और वे उसका समाचार पूछने लगे। '
हे देवि! तुम कौन हो ? किसकी हो ? इस वन में क्या ढूंढ रही हो? तुम्हें देखकर हम सभी भय से व्याकुल हैं। क्या तुम मानुषी हो ? अथवा यक्षिणी हो? या राक्षसी ? तुम सत्य कहो, हमारा सब तरह से कल्याण करो, हमारी रक्षा करो तथा ऐसा कोई उपाय करो जिससे हमारा यह कारवां सकुशल वहाँ शीघ्र ही चला जाए, क्योंकि हम सब तुम्हारी शरण में आये हैं। जनसमूह द्वारा इस प्रकार से पूछे जाने पर दमयन्ती ने पूर्व - वृत्तान्त कह सुनाया तथा नल के अन्वेषण की बात कही । यह सुनकर उस जनसमूह का शुचि नामक समूहपति बोला- हे देवि ! मैं झुण्ड का नेता सार्थवाह हूँ और मैंने नल नामक किसी व्यक्ति को नहीं देखा है। यह सुनकर दमयन्ती उससे पूछती है कि आप लोग कहाँ जा रहे हैं, तो वह सार्थवाह बोला- यह वणिकजनों का झुण्ड लाभ के निमित्त सत्यशील चेदिदेश के राजा सुबाहु के राज्य को जा रहा है । "
सार्थवाह के इस वचन को सुनकर वह दमयन्ती अपने पति के अन्वेषण के निमित्त उन लोगों के साथ चल दी। मार्ग में फल पुष्प से सुशोभित 'सौगन्धिक' नामक तालाब को देखकर वह जनसमुदाय अपने स्वामी की अनुमति प्राप्त कर वहाँ विश्राम के लिए रुक गया । किन्तु आधी रात को जब वे सभी गाढ़ी निद्रा में निमग्न थे उसी समय हाथियों का झुण्ड तालाब के समीप पहुँचा और लोगों को अपने पैरों से मारने लगा। वे सभी हाहाकार करने लगे किन्तु किसी प्रकार से भी उन हाथियों के झुण्ड का प्रतिकार नहीं कर सके और हाथियों के झुण्ड ने जनसमुदाय को मार डाला। प्रात: उस जनसमुदाय में से जो लोग बचे थे वे सब उस भयानक बिभीषिका का चिन्तन करते हुए वहाँ से चल दिये । वह दमयन्ती भी बहुबिध चिन्ता करती हुई मरने से बचे हुए वेद जानने वाले उन ब्राह्मणों के साथ प्रस्थान कर दी। तत्पश्चात् एक दिन सन्ध्यासमय चेदिदेश के राजा सुबाहु के महान् नगर के समीप पहुँची और नगर में प्रविष्ट हो गई। आधा ही वस्त्र पहने हुए, विवर्ण, खुले केशों वाली वह दमयन्ती वहाँ के निवासियों से घिरी हुई महल के समीप पहुँची, जहाँ बालकों से घिरी हुई उस दमयन्ती को राजमाता ने देखा, और बालकों को दूर कर उसे महल में ले गई तथा दमयन्ती से पूछने लगी तुम इस आपत्ति में पड़कर भी ऐसी उत्तम शोभा को धारण करती हो अतः तुम सत्य बताओ कि तुम कौन हो ? यह सुनकर दमयन्ती ने
१. महाभारत, वनपर्व ६४ / ७३ - ११२ । २. महाभारत, वनपर्व ६४/११३-१२५।
३. महाभारत, वनपर्व ६५/१-२३।
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