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नलविलासे घोरघोणोपदेशेन च मया त्वमरण्ये दमयन्ती त्याजितः। इहागत्य त्वन्मरणप्रवादः कृतः।
नल:- (सरोषम्) अये! शूलामेनं दुरात्मानमारोपयन्तु। यदि वा तिष्ठतु, घोरघोणेन सहायं व्यापादयिष्यते।
कलहंस:- देव! दृष्टो दुरोदरविनोदविपाकः? । नल:- तुभ्यं शपे परमतो विरतोऽस्मि (तस्मात्)
तस्माद् दुरोदरविनोदकलङ्कपङ्कात्। यस्मात् प्रवृत्तमतिशायि विषादसाद
दैन्यापमानघटनापटु नाट्यमेतत्।।१३।। देवि! कथय तावन्मया त्यक्ता सती वने किमनुभूतवत्यसि?
दमयन्ती-(१) जं मए रन्ने अणुभूदं तं लदापाशच्छेदपेरंतादो नाडयादो अज्जउत्तेण दिडं। अणंतरं सत्थवाहेण अयलउरे रिउवनस्स पासे अहं नीदा।
ने) आपको पराजित किया। और घोरघोण की आज्ञा से मैंने आपसे जंगल में दमयन्ती का त्याग करवाया। यहाँ आकर आपके मृत्यु का मिथ्या प्रचार किया।
नल- (क्रोध के साथ) अरे! इस दुष्टात्मा को शूली पर चढ़ा दो। अथवा ठहरो, घोरघोण के साथ ही मार डालना।।
कलहंस- देव! जूए के खेल का परिणाम देख लिया!
नल- तुमको मैं शाप देता हूँ (तथा) आज से उस जूए के खेल के आनन्द से जायमान कलङ्करूपी कीचड़ से अलग हो गया हूँ। जिससे खिन्नताजन्य क्लान्ति से दुर्दशा और अनादर की योजना में कुशल यह नाटक अत्यधिक विस्तार को प्राप्त हुआ।।१३।।
देवि! तो यह कहो कि मेरे द्वारा वन में छोड़ दिये जाने पर तुमने क्या अनुभव किया?
दमयन्ती- मैंने वन में जो अनुभव किया वह तो लता रूपी फन्दे के काटे जाने तक की गई अभिनय-क्रिया से आर्यपुत्र ने देखा ही है। पश्चात् सार्थवाह के द्वारा अचलपुरवासी ऋतुपर्ण के समीप मैं लाई गई।
(१) यन्मयाऽरण्येऽनुभूतं तल्लतापाशच्छेदपर्यन्तान्नाटकाद् आर्यपुत्रेण दृष्टम्। अनन्तरं सार्थवाहेनाचलपुर ऋतुपर्णस्य पार्श्वेऽहं नीता।
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