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________________ १८४ नलविलासे नल:- (स्वगतम्) अहो! कौतुकम्! एतामहमरण्ये व्यालानां बलिं कृतवान्। इयं पुनर्ममाप्रियनिवृत्त्यर्थं प्राणान् परित्यजति। स्वमेकः पररक्षार्थं विनिहन्ति विपत्तिषु। स्वरक्षार्थं परं त्वन्यश्चित्रं चित्रा मनोगतिः।।७।। दमयन्ती- (१) कपिञ्जले! उवणेहि हुयासणं जेण चिदं पज्जालेमि। कपिञ्जला-(२) भट्टिणि! अहं वि हुयासणमणुसरिस्सं। दमयन्ती-(३) कपिञ्जले! मा एवं भण। तए अंबा संधारियव्वा। कपिञ्जला-(४) भट्टिणी पुप्फवदी वि तुह मग्गं अणुसरिदुमिच्छदि, परं भट्टा वारेदि। दमयन्ती-(५) संतं संतं पडिहदममंगलं। णं अंबा तायवुड्डत्तणे चलणसुस्मृसिणी भविस्सदि। नल- (मन ही मन) ओह, आश्चर्य है! मैंने इसको जंगल में हिंसक जीवों का भोजन बनाया। फिर भी यह मुझ नल के अमङ्गल की शान्ति के लिये प्राण का त्याग करती है। हृदय की इच्छा भी बड़ी विचित्र है- कोई विपत्ति में पड़े दसरे की रक्षा के लिए स्वयं को मार डालता है, (तो) कोई अपनी रक्षा के लिए दूसरे को।।७।। दमयन्ती- कपिञ्जले! अग्नि लाओ, जिससे चिता को प्रज्वलित करूँ। कपिञ्जला- स्वामिनि! मैं भी अग्नि में प्रवेश करूँगी। दमयन्ती- कपिञ्जले! ऐसा मत कहो। तुम्हें माता को सांत्वना देनी है। कपिञ्जला- स्वामिनी पुष्पवती भी तुम्हारे मार्ग का अनुगमन करना चाहती है, किन्तु स्वामी रोक रहे हैं। दमयन्ती- पाप शान्त हो, अमङ्गल का नाश हो। माता ही तो पिता के बुढ़ापे में चरणों के सेवा करने वाली होंगी। (१) कपिञ्जले! उपनय हुताशनं येन चितां प्रज्वालयामि। (२) भत्रि! अहमपि हुताशनमनुसरिष्यामि। (३) कपिञ्जले! मैवं भण। त्वयाऽम्बा सन्धारयितव्या। (४) भी पुष्पवत्यपि तव मार्गमनुसरितुमिच्छति, परं भर्ता वारयति। (५) शान्तं शान्तं प्रतिहतममङ्गलम्। नन्वम्बा तातवार्धक्ये चरणशुश्रूषिणी भविष्यति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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