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________________ सप्तमोऽङ्कः १८३ दयमयन्ती - ( सरोषमात्मगतम्) (१) को एष दुम्मुहो अज्जउत्तं निंददि? (प्रकाशम्) वइदेसिग ! नाहमरण्णे पड़णा परिचत्ता, किन्तु सयं मग्गदो परिब्भट्ठा । कपिञ्जला - (२) पहिय! जं कलहंसो कहेदि तं सच्चं । कलहंस:- निषधाधिपतिरिदानीं विपन्न इति श्रूयते । तत इयं देवी चितामधिरोहति । नलः - बाले ! यस्त्वामेकाकिनीमनिमित्तमरण्ये त्यजति तदर्थमेतत् त्रिलोकीलोचनोत्सवो वपुरग्निसात् क्रियत इति न मे मनसि समीचीनमाभाति । अपि च मुग्धे! किं पावकदग्धैः स एव प्रियः प्राप्यते ? तैस्तैः शुभैरशुभैर्वा कर्मभिर्भिन्नवर्तिनीसञ्चरिष्णवः सर्वे जन्तवः । कलहंसः - पान्थ ! नायं तस्यैव प्रियस्य प्राप्त्यर्थं न च धर्मार्थं प्रयत्नः, किन्तु क्षत्रियाचारानुचारार्थं प्रियाप्रियनिवृत्त्यर्थं च । कपिञ्जला - पथिक! कलहंस जो कहता है वही सत्य है । कलहंस- उस निषधदेश के महाराज विपत्ति में पड़े है ऐसा सुनी है। इसलिए यह देवी ( दमयन्ती) चिता में प्रवेश कर रही है। नल- बाले ! जो तुमको बिना किसी कारण के जंगल में अकेली छोड़ (सक) ता है उसके लिये इस तीनों लोक के नेत्रों के लिये आनन्ददायक शरीर को अग्नि में जला रही हो, यह मेरे मन में उचित प्रतीत नहीं होता है। और भी, मुग्धे ! क्या अग्नि में जलाने से वह प्रिय (नल) प्राप्त होगा ? (अपने ) उन-उन शुभ-अशुभ कर्मों से विपरीत मार्ग पर भ्रमण करने वाले सभी जीव हैं। कलहंस- पथिक! न तो यह उस प्रिय( नल) की प्राप्ति के लिये और न धर्म प्राप्ति के लिये ही प्रयास कर रही है, किन्तु क्षत्रियधर्म के अनुकूल आचरण करने के लिए और प्रिय के अमङ्गल की शान्ति के लिये । (१) क एष दुर्मुख आर्यपुत्रं निन्दति ? वैदेशिक ! नाहमरण्ये पत्या परित्यक्ता, किन्तु स्वयं मार्गतः परिभ्रष्टा । (२) पथिक! यत् कलहंसः कथयति तत् सत्यम् । १. ख. ग. चरणा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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