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________________ १८२ नलविलासे दमयन्ती-(१) वेदेसिग! न संपदं अवसरो नियचरिदकहणस्स। ता जदि दे दाणेण इच्छा ता गिण्ह, आदु अन्नदो बच्च। कलहंस:- (उपसृत्य) वैदेशिक! शृणु वह्निप्रवेशनिमित्तम्। नलं रन्तुं चेतस्तरलमनलं वाऽस्य विरहे सतीभावो यस्यामथ च जगतां विश्रुततमः। इयं सा क्षीराक्षी तदपि निषधक्षोणिपतिना विना दोषोन्मेषादधिवनमपास्ता कथमपि।।६।। नल:- आः! कथमद्य प्रातरेव चण्डालचरितस्य तस्य पापीयसो निषधाभर्तुरभिधानं त्वया स्मारितोऽस्मि? सौन्दर्य की श्री वाली अपने शरीर का अग्नि में आहुति क्यों दे रही हो। विरत हो जाओ, अपने इस दृढ़ निश्चय से विरत हो जाओ। दमयन्ती- वैदेशिक! सम्प्रति आत्मजीवनी कहने का समय नहीं हैं। हाँ, यदि तुम दान लेना चाहते हो, तो दान ग्रहण करो अन्यथा अन्यत्र जाओ। कलहंस- (पास जाकर) वैदेशिक! अग्नि में प्रवेश करने का कारण सुनो। जिसका हृदय नल में रमण करने के लिये व्याकुल है अथवा इस (नल) के वियोग में अग्नितुल्य है और लोक में जिसमें सतीत्व अत्यन्त प्रसिद्ध है। (यद्यपि) यह दूध के समान अत्यन्त पवित्र है तथापि वह निषधदेश के स्वामी नल के द्वारा कोई दोष दिखाये बिना किसी न किसी प्रकार वन के मध्य में छोड़ दी गई।।६।। नल- ओह, क्यों आज प्रात:काल ही चाण्डाल सदृश आचरण करने वाला उस महान् पापीष्ट, निषधदेश की रक्षा नहीं करने वाला नाम से कहा जाने वाला मैं तुम्हारे द्वारा स्मरण किया गया हूँ? दमयन्ती- (क्रोधित हुए की तरह अपने मन में) वह दुर्मुख कौन है, जो आर्यपुत्र की निन्दा करता है! (प्रकट में) वैदेशिक! मैं पति के द्वारा जंगल में नहीं छोड़ी गई, किन्तु स्वयं मार्ग-भ्रष्ट हो गई। (१) वैदेशिक! न साम्प्रतमवसरो निजचरितकथनस्य। तद् यदि ते दानेनेच्छा तद् गृहाणाथवाऽन्यतो व्रज। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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