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सप्तमोऽङ्कः
१८५ कपिञ्जला- (१) भट्टा वि तुह दुक्खेण थोवजीविदो संभावीयदि।
नल:- (स्वगतम्) उपस्थितः सर्वसंहारस्तदतः परं नार्हामि गोपयितुमात्मानम्। (प्रकाशम्) बाले! यदि ते पतिः कुतोऽपि सनिधीयते, तदा निवर्तसे साहसादस्मात्?
दमयन्ती- (२) पहिय! किं मं उवहसेसि? नत्थि मे इत्तियाई भागधेयाई, जेहिं पुणो वि अज्जउत्तं पिच्छामि। कपिंजले! उवणेहि जलणं।
(कपिञ्जला ज्वलनमुपनयति। दमयन्ती चितां प्रज्वालयति) कलहंस:- देवि! प्रथममहमात्मानं भस्मसात् करोमि। खरमुखः- (३) नहि नहि अहं पढम।
मकरिका- (४) चिटुंदु सव्वे वि, पढमं अहं चिदाए पविसिस्सं। न सक्केमि तुम्हाण मरणं पिच्छिदं।
कपिञ्जला- तुम्हारे दुःख के कारण पिता भी थोड़े ही दिन जीवित रहेंगे।
नल-(मन ही मन) सर्वनाश उपस्थित हो गया अत: अब अपने आपको छिपाने में समर्थ नहीं हूँ। (प्रकट में) बाले! यदि तुम्हारा पति यहीं कहीं पास में हो, तो अपने इस दृढ़निश्चय से विरत हो जाओगी?
दमयन्ती- पथिक! मेरा उपहास क्यों करते हो? मेरा इतना बड़ा भाग्य नहीं है जिससे पुनः आर्यपुत्र को देखू। कपिञ्जले! अग्नि लाओ।
(कपिञ्जला अग्नि लाती है। दमयन्ती चिता जलाती है) कलहंस- देवि! पहले मैं स्वयं को भस्म करता हूँ। खरमुख- नहीं, नहीं पहले मैं।
मकरिका- सभी ठहरें, पहले मैं चिता में प्रवेश करती हूँ। तुम लोगों के मरण को मैं नहीं देख सकती हूँ।
(१) भापि तव दुःखेन स्तोकजीवित: सम्भाव्यते।
(२) पथिक! किं मामुपहससि? न सन्ति ममैतावन्ति भागधेयानि, यैः। पुनरप्यार्यपुत्रं पश्यामि। कपिञ्जले! उपनय ज्वलनम्।
(३) नहि नहि अहं प्रथमम्।
(४) तिष्ठन्तु सर्वेऽपि, प्रथममहं चितां प्रवेक्ष्यामि। न शक्नोमि युष्माकं मरणं द्रष्टुम्।
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