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________________ षष्ठोऽङ्कः १७५ भद्रः- यथादिशति देवः (इत्यभिधाय निष्क्रान्त:) राजा- (ऊर्ध्वमवलोक्य) कथमस्तं गतो गभस्तीनामधिपतिः? कथारसास्वादोपहृतचेतोभिरस्माभिः सन्ध्याविधिरप्यतिलचितः। (नेपथ्ये) प्रविशन्तीं कैरविणीं सन्ध्यारागानले विरहदुःखात्। कुवलयपतिरयमेष प्रतिषेद्धमिवोर्ध्वकर एति।।२४।। राजा-कथमेष बन्दी चन्द्रोदयं पठति? अमात्य! त्वं स्वं नियोगमशून्यं कुरु। वयमपि सकलदेवताधिचक्रवर्तिनो भगवतो नाभिनन्दनस्य सन्थ्यासपर्याविधिमनुष्ठातुं प्रतिष्ठामहे। (इति निष्क्रान्ताः सवें) ।। षष्ठोऽः।। भद्र- महाराज की जैसी आज्ञा (यह कहकर चला जाता है)। राजा- (ऊपर की ओर देखकर) तो क्या किरणों के स्वामी सूर्य अस्ताचल को चले गये? नाट्य के कथा रसास्वादन में अपहत चित्त वाले मेरे द्वारा सन्ध्योपासना क्रिया का भी उल्लंघन हो गया। (नेपथ्य में) वियोगजन्य दुःख के कारण सन्ध्या कालीन लालिमा रूपी अग्नि में प्रवेश करती हुई कुमुदिनी को मानो निषेध (मना) करने के लिए ऊपर उठे हाथ (किरणों) वाला यह चन्द्रमा आ ही रहा है।।२४।। राजा- यह क्या, चारण तो चन्द्रोदय का पाठ (वर्णन) करता है? सचिव! तुम अपना कार्य सम्पन्न करो। हम भी समस्त देवों में श्रेष्ठ भगवान् ब्रह्मा के लिए सन्ध्या वन्दन करने के लिए जा रहे हैं। (यह कहकर सभी चले जाते हैं) ॥षष्ठ अङ्क समाप्त।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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