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नलविलासे भद्रः- महाराज! भीमरथस्य प्राणेभ्योऽपि प्रिया पुत्री समस्ति। नलः- (ससम्भ्रमम्) सा खलु दमयन्ती। भद्रः- ततस्तस्याः प्रातः स्वयंवरविधिं विदर्भाधिपतिर्विधास्यति।
नल:- (स्वगतम्) अहो! धर्मविप्लवः। (पुनः सरोषम्) आः कृतान्तकटाक्षितो मयि प्राणति दमयन्तीं कः परिणेष्यति?
राजा- ततः किम्?
भद्रः- तथा कथञ्चन प्रयतितव्यं यथा श्वः स्वयंवरमण्डपमयोध्याधिपतिरलङ्करोति।
राजा- भद्र! शतयोजनप्रमाणमध्वानं किमेकयैव त्रियामया वयं लयितुमलम्भूष्णवः?
नल:- (स्वगतम्) अहं तत्र गत्वा धर्मविप्लवं निवारयामि। (प्रकाशम्) देव! मा भैषीः, अहं ते सर्व समञ्जसमाधास्यामि।
राजा- भद्र! 'एते वयमागता एव' इति निवेदय विदर्भाधिपतेः। भद्र- महाराज! अपने प्राण से भी प्यारी भीमरथ की एक पुत्री है। नल-(घबड़ाहट के साथ) निश्चय ही वह दमयन्ती है।
भद्र- अत: विदर्भनरेश भीमरथ कल प्रात:काल उसके स्वयंवर सभा का अनुष्ठान करेंगे।
नल- (अपने मन में) ओह, यह तो धर्म के लिए उपद्रव उठ खड़ा हुआ। ओह दुर्दैव से तिरस्कृत मेरे जीवित रहते दमयन्ती से कौन विवाह करेगा?
राजा- तो क्या?
भद्र- आप कोई वैसा प्रयत्न कीजिये जिससे कल स्वयंवरसभा को अयोध्या के नरेश सुशोभित करें।
राजा- भद्र! चार सौ कोस की दूरी वाले मार्ग को एक रात्रि में तय करने में हम कैसे समर्थ हो सकते हैं?
नल- (मन ही मन) मैं वहाँ जाकर धर्म के लिए उत्पन्न इस विघ्न को रोकूँगा। (प्रकट में) महाराज! डरें नहीं, मैं आपकी सारी समस्याओं का निदान करूंगा।
राजा- भद्र! 'हम आ ही गये' ऐसा विदर्भ नरेश से कहो।
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