________________
सप्तमोऽङ्कः।
(ततः प्रविशति रथेन राजा बाहुकश्च) राजा- बाहुक! प्रभातप्राया त्रि'यामिनी।
सहस्रांशोर्धाम्नां दिशि दिशि तमोगर्भितमिदं कुलायेभ्यो व्योम्नि व्रजति कृतनादं खगकुलम्। दवीयस्तामेतान्यपि जहति युग्मानि शनकै
रथाङ्गानामस्यां सपदि वरदायास्तटभुवि।।१।। अपि च यथा पुरः प्राकारनगरागारसन्निवेशाः समुन्मीलन्ति तथा जाने प्राप्तः पताकी कुण्डिनस्य परिसरम्।
नल:- (स्वगतम्) अहो! दिव्यस्य तेजसः सोऽप्यपूर्वः प्रभावः। स्मरणमन्त्राभिमन्त्रितमात्रोऽपि तातस्तथा कथञ्चन वाजिनोऽधिष्ठितवान् यथा जवेन पवनमपि पराजयते। (सहर्षम्) चिरादद्य देवी द्रक्ष्यामीति हर्षप्रकर्षेण पुलककोरकितगात्रोऽस्मि। (पुन: सविषादम्) यदि वा
(पश्चात् रथारूढ़ राजा और बाहुक प्रवेश करता है) राजा- बाहुक भोर हो गया।
अन्धकार के गर्भ में पड़ा हआ यह पक्षी-समूह घोंसलों से निकलकर कलरव ध्वनि करता हुआ सूर्य के प्रकाश वाले आकाश की प्रत्येक दिशा में (उड़कर) जा रहा है। धीरे-धीरे वरदा नदी के तट पर चक्रवाक पक्षियों के यह जोड़े भी शीघ्रता से (अपनी) पारस्परिक दूरी को छोड़ रहे हैं।।१।।
और भी, जैसा कि चहारदीवारी से (युक्त) नगर के भवन-समूह दिखाई पड़ रहे हैं, उससे तो यही ज्ञात होता है कि हम ध्वजा से अलंकृत कुण्डिन नगरी के प्रान्त भाग में पहुँच गये हैं।
नल- (मन ही मन) ओह, दिव्य तेज का प्रभाव भी विलक्षण है। केवल स्मरण मन्त्र से अभिषिक्त होकर सूर्यदेव हर प्रकार से वैसे रथ पर आरुढ़ हुए हैं, जो अपनी गति से वायु को भी पराजित कर रहे हैं। (प्रसन्नतापूर्वक) आज बहुत दिन के बाद
१. क. त्रियामा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org...