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षष्ठोऽङ्कः
१७१ सपर्णः- (विहस्य) बाहुक! किमिदं पुनः पुनरात्मनो विस्मरणम्। कथं नाट्यमपि साक्षात् प्रतिपद्यसे? तद् यथास्थानमुपविश।
दमयन्ती-(१) कधं एदिणा वि न मे दुक्खमोक्खो कदो? ता एयम्मि सहयारे अत्ताणं उब्बंधिय वावाएमि। (दिशोऽवलोक्य) हा अज्जउत्त! एसा तए निक्कारणनिक्करुणेण परिच्चत्ता असरणा दमयन्ती विवज्जदि। अंबाओ वणदेवयाओ! कधिह अज्जउत्तस्स एवं मह वि (व) वसिदं। हा! अंब पुफ्फवदीए! हा! ताय भीमरह! कहिं सि? देहि मे पडिवयणं। (लतापाशं कण्ठे बध्नाति)
राजा- (सरभसमुत्थाय) भगवति पतिव्रते! अलमात्मनो विघातेन। सपर्ण:- बाले! किमिदमकृत्याचरणम्?
जीवलक:- आर्य! नार्हसि नवे वयसि दुरात्मनः स्वपतेनिमित्तमकाण्डे प्राणान् परित्यक्तुम्। अभिनय समाप्त करो), क्योंकि स्त्रीवध के विधान को देखने में राजसमूह समर्थ नहीं है।।२२।।
सपर्ण- (हँसकर) बाहुक! बार-बार अपने आप को क्यों भूल जाते हो? क्यों अभिनय को वास्तविक मानते हो? अत: अपने स्थान पर बैठ जाओ।
दमयन्ती- इसने भी मेरी पीड़ा को दूर नहीं किया। अत: इस आम्रवृक्ष में अपने आप को बाँधकर आत्मवध करती हूँ। हा आर्यपुत्र! तुम निर्दयी द्वारा बिना कारण त्याग दी गई यह असहाय दमयन्ती विपत्ति में पड़ी है। माँ वनदेवियों! मेरे द्वारा किये गये इस संकल्प को आर्यपुत्र से कहो। हा माँ पुष्पवति! हा पिता भीमरथ! कहाँ हो? मुझे जवाब दो।
राजा- (शीघ्रता से उठकर) भगवति! पतिव्रते! आत्मवध से कोई लाभ नहीं। सपर्ण- बाले! नहीं करने योग्य कर्म का आचरण क्यों कर रही हो?
जीवलक- आयें! अपने दुष्टात्मा पति हेतु अनायास नवीन युवा अवस्था में प्राण का (जीवन का) त्याग करना उचित नहीं है। ___ (१) कथमेतेनापि न मे दुःखमोक्षः कृतः! तदेतस्मिन् सहकार आत्मानमुद्बध्य व्यापादयामि। हा! आर्यपुत्र! एषा त्वया निष्कारणनिष्करुणेन परित्यक्ताऽशरणा दमयन्ती विपद्यते। अम्बा वनदेवता:! कथयतार्यपुत्रायैतन्मम व्यवसितम्। हा! अम्ब पुष्पवति! हा! तात भीमरथ! कुत्रासि? देहि मे प्रतिवचनम्।
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