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नलविलासे
द्वावप्यद्य पथाविमौ मम मनः प्रीत्यै ततस्ते प्रियं
यत् पुष्णात्यचिरात् तदाचर हरे! मा स्माभिशङ्कां कृथाः । । २१ । । (विलोक्य) (१) कथं एस परम्पुहो जादो ? न किंपि पडिवयणं पयच्छदि ।
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राजा - बाहुक! ध्रुवमयं मृगारिरेतस्याः पतिव्रताव्रतप्रभावेण प्रतिहतः ।
नलः - (स्वगतम्) दिष्ट्या स्वयमेव प्रतिनिवृत्तमरिष्टम् । तदहमतः परमुत्थाय नाट्यं निवारयामि । येन मे पुनर्देवीविनिपातदर्शनं न भवति । ( ससंरम्भमुत्थाय साक्षेपम् )
अपारे कान्तारे व्यसनशतकीर्णे प्रतिदिशं
कियत्कृत्वः सत्त्वं स्फुरति भृशमस्याः फलति च । नटा! नाट्यं हो! तदिह खलु कृत्वोपरमत
यतो द्रष्टुं स्त्रीणां वधविधिमयोग्याः क्षितिभुजः ।। २२ ।।
( रास्ता ) मेरे हृदय की प्रसन्नता के लिए हैं अतः जिससे तुम्हारी इच्छा पुष्ट (पूरी) होती है वह कार्य यथाशीघ्र करो, इसमें (किसी प्रकार की ) चिन्ता मत करो ।। २१ । ।
(देख करके) यह पराङ्मुख (अर्थात् कार्य से विरत ) क्यों हो गया। कुछ भी उत्तर नहीं दे रहा है।
राजा - हे बाहुक! निश्चित ही इसके पतिव्रत्य के प्रभाव से परास्त हो गया है।
नल- ( अपने मन में) सौभाग्य से यह शत्रु अपने आप ही लौट गया। अत: मैं यहाँ से उठकर अभिनय क्रिया को रोकता हूँ. जिससे पुनः देवी ( दमयन्ती) वध का मुझे दर्शन न हो।
(वेग के साथ उठ करके आक्षेप करता हुआ)
सैकड़ों विघ्नों से युक्त निर्जन वन में प्रत्येक दिशा में इस (देवी दमयन्ती) का शक्तिशाली भद्रता और शुचिता का सर्वोत्तम गुण कितना अधिक चमक (फैल) रहा है और फल दे रहा है, अतः हे नट लोगो ! अभिनय क्रिया से विरत हो जाओ (अर्थात्
(१) कथमेष पराङ्मुखो जातो ? न किमपि प्रतिवचनं प्रयच्छति ।
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