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नलविलासे नल:- (ससम्भ्रममुच्चैःस्वरम्) देवि देवि! अलमलमतिसाहसेन। नार्हसि मामात्मनो वधेन दुरात्मानं कलङ्कयितुम्। अपि च निस्त्रिंशस्य निर्मर्यादस्य पापीयसः पत्याभासस्य मम कृते वृथा सतीचक्रावतंसमात्मानं व्यापादयसि।
गन्धारः- (विलोक्य सभयसम्भ्रमम्) अये पिङ्गल! पिङ्गल! छिद्धि छिद्धि पाशमस्या यावदियमद्यापि श्वसिति। (पिङ्गलकः सरभसं धावित्वा लतापाशं छिनत्ति। दमयन्ती मूर्छिता पतति)
पिङ्गल! ध्रुवमियमपश्यन्ती प्रियं क्वापि विपत्स्यते। तदिदानीमुत्पाट्य सार्थवाहाय समर्पयावः। (तथा कृत्वा निष्क्रान्तौ)
गर्भाङ्कः।। राजा- परां काष्ठामधिरूढवान् करुणो रसः।
सपर्णः-देव! रसप्राणोनाट्यविधिः। वर्णार्थबन्धवैदग्धीवासितान्तःकरणा ये पुनरभिनयेष्वपि प्रबन्धेषु रसमपजहति विद्वांस एव ते न कवयः।
नल- (वेग के साथ जोर से) देवि! देवि! अधिक दुःसाहस करने की आवश्यकता नहीं। अपने बध से मुझ दुष्टात्मा को कलङ्कित नहीं कर सकती हो। और भी, कठोर उदंड, पापमय मुझ छाया रूपी स्वामी के लिए पतिव्रता पत्नियों की तरह आचरण करती हुई आत्मवध का प्रयास व्यर्थ कर रही हो।
गन्धार- (देख करके भय तथा घबड़ाहट के साथ) अरे पिङ्गल! अरे पिङ्गल! इसके फाँसी के बन्धन को काटो, काटो; जब तक कि यह अभी तक जीवित है। (पिङ्गलक शीघ्रता से दौड़कर लतापाश को काटता है मूछित दमयन्ती गिरती है)
पिङ्गलक- निश्चय ही अपने स्वामी को कहीं नहीं देखती हुई यह विपत्ति में पड़ी है। इसलिए इसे यहाँ से उठाकर झुण्ड के नेता को समर्पित करते हैं। (वैसा करके सभी रङ्गमञ्च से निकल जाते हैं)।
गर्भाङ्क।। राजा- करुण रस चरमोत्कर्ष को प्राप्त हो गया है।
सपर्ण- अभिनेय काव्य का प्राण रस (ही) है। (अत:) कथावस्तु की योजना में शब्दार्थ की चाहता से अपहत अन्त:करण वाले जो अभिनेय काव्य में (वर्ण-वैचित्र्य के द्वारा) रस को तिरोहित कर देते हैं वे विद्वान् तो हैं, किन्तु कवि नहीं।
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