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________________ १६७ षष्ठोऽङ्कः नल:- (ऊर्ध्वमवलोक्य स्वगतम्) कल्पान्तकल्पमुपकल्प्य महो दिनेश! मां भस्मसात् कुरुतरामचिराय पापम्। विश्वासघातजनितेन न चेदनेन पापेन हन्त! नियतं परिगृह्यसे त्वम्।। १८।। पिङ्गलक:-(१) अज्जे! जदि दिणेशलकिलणेहिं अदिचिलं संताविदा सि, ता एदम्मि सहयालनिकुंजे पविश। गन्धार:- (पुरो भूत्वा) इत इत आर्या। ___(सर्वे परिक्रामन्ति) (विलोक्य सभयं निवृत्त्य च) आयें! निवर्तस्व निवर्तस्व। चिरप्ररूढगाढबुभुक्षाक्षामकुक्षिः प्रतिनादमेदुरेण क्ष्वेडानिनादेन समन्ततः शोषयन् वन्यस्तम्बेरमाणां मदजलानि करालजिह्वाजटालवक्त्रकुहरस्तरुण नल- (ऊपर देखकर अपने मन में) हे भगवान् सूर्य! सृष्टि का अन्त करने में समर्थ (होने वाले) तेज को सञ्चित करके मुझ पापी को शीघ्र भस्म कर डालो, विश्वासघात करने के लिए जन्म लिए हुए इस अधम को यदि तुम भस्म नहीं करते हो, तो खेद है कि तुम निश्चय ही (इस अधम को) पकड़ रहे हो।।१८।। पिङ्गलक- आयें! यदि सूर्य की किरणों से अत्यधिक सन्ताप (का अनुभव कर रही) हो, तो इस आम्रवृक्ष के झुण्ड में प्रवेश करो। गन्यार- (आगे होकर) इधर से आर्या, इधर से। (सभी घूमते हैं) (देखकर के भय के साथ रुककर) आर्य! रुक जाओ। अधिक बढ़े हुए भूख के कारण कृश उदर वाला गम्भीर प्रतिध्वनि के शोरगुल से जंगली हाथियों के मदजल को पूरी तरह से सुखाता हुआ भयंकर जिह्वा और केश रूपी जटाओं से युक्त मुख - (१) आयें! यदि दिनेश्वरकिरणैरतिचिरं सन्तापिताऽसि, तदेतस्मिन् सहकारनिकुञ्ज प्रविश। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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