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________________ नलविलासे १६८ गुञ्जापुञ्जारुणेक्षणः प्रतिक्षणं लोललाङ्गलदण्डेन साटोपमाच्छोटयन्नवनिपीठमेकः केशरिकिशोरः सहकारनिकुञ्जाभ्यन्तरमधिवसति। दमयन्ती-(१) अज्ज! मज्झे केसरी चिट्ठदि? दिट्ठया करिस्सदि मे दुक्खमोक्खं। (पिङ्गलको विलोक्य सभयं नश्यति) दमयन्ती-(२) भोदु, उवसप्पामि णं। नलः- (विलोक्य ससम्भ्रममात्मगतम्) कथं देवीं पञ्चाननो व्यापादयितुमपक्रान्तः? हा! हतोऽस्मि। (विमृश्य) वीराग्रणीः खल्वसौ तदमुं सामप्रयोगेण वारयामि। __ (सरभसमुत्थाय) एकाकिन्यबला वियोगविधुरा घोरान्तरप्रान्तर क्षोणीपादविहारनिष्ठितवपुस्त्वग्मांसरक्तस्थितिः। विवर वाला नये गुञ्जा लता में फलने वाले लाल-लाल बेरों सदृश लाल नेत्रों वाला प्रत्येक क्षण चञ्चल पूँछ रूपी डण्डे से गर्व के साथ पृथिवी को खोदता हुआ सिंह का बच्चा आम्रवृक्ष के झुण्ड के मध्य में रहता है। दमयन्ती- आर्य! मध्य में सिंह ठहरा है? तो भाग्य से (वह) मेरे दुःख को दूर कर देगा। (पिङ्गलक देखकर के भयपूर्वक छिप जाता है) दमयन्ती- अच्छा, इसके समीप जाती हूँ। नल- (देखकर के घबड़ाहट के साथ अपने मन में) क्या देवी को मारने के लिए सिंह दूर हट गया? ओह, मैं मारा गया। (विचार कर) निश्चय ही वह वीरों में श्रेष्ठ है, अत: इसको साम नीति के प्रयोग से रोकता हूँ। (शीघ्रता से उठकर) हे सिंह! यमराज के मुख-विवर में भेजी गयी भयावह जनशून्य मार्ग पर भ्रमण करने का अभ्यास करती हुई इस चमड़ा, मांस और रक्त (१) आर्य! मध्ये केसरी तिष्ठति? दिष्ट्या करिष्यति मे दुःखमोक्षम्। (२) भवतु, उपसर्पाम्येनम्। टिप्पणी- 'कण्ठीरव' कण्ठीरवो मृगरिपुः' www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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