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नलविलासे
तन्नामश्रवणाद् वयं च निखिला पर्षच्च सेयं नटाचैतेऽसौ ननु बाहुकश्च महता पापेन संलिप्यते । । १७ ।।
नल: - ( सरोषम् ) किमिदमपरिज्ञातमुच्यते देवेन । क्रूरचक्रवर्ती नलोऽस्मि, योऽहमकाण्डे देवीमेकाकिनीं गहने वने निर्लज्जः सन्त्यजामि । तस्य महत्यपि पाप्मनि का किलाशङ्का ?
राजा - (ससम्भ्रमम्) कस्त्वमसि ?
नलः - (स्वगतम्) कथं विषादमूर्च्छालेन मयाऽऽत्मा प्रकाशितः ! भवतु, (प्रकाशम्) बाहुकसूपकारोऽस्मि ।
राजा - तत् किं नलोऽस्मीत्युक्तवानसि ?
नलः - किमहं नलोऽस्मीत्युक्तवानुतानुक्तमपि नाट्यरसाकुलितचेता देव एवमशृणोत् इति सन्देहः ।
राजा - ध्रुवमहमस्मि भ्रान्तः । अपरथा क्व स महाराजनिषधस्यापत्यं दर्शनीयरूपो नलः क्व भवान् सर्वाङ्गविकृतिः ?
"
स्त्रीरत्न! हे पतिव्रते! उस शठबुद्धि वाले क्रूर दुष्टात्मा पति का बार-बार नाम लेकर तुम पाप का ग्रहण मत करो, मत करो, उस दुष्टात्मा के नाम को सुनने से हम यह सम्पूर्ण सभा, ये नट लोग और यह बाहुक, महान् पाप से युक्त हो रहे हैं । । १७ ।।
नल- ( क्रोध के साथ) नहीं जाने गये की तरह महाराज यह क्या कह रहे हैं। क्रूरों का सम्राट् मैं नल हूँ, जिस निर्लज्ज ने अकारण घने वन में देवी को अकेली छोड़ दिया। उसके नाम के श्रवण से महान् पाप होगा इसमें भी सन्देह है क्या ?
राजा - ( घबराहट के साथ) तुम कौन हो ?
नल- ( मन ही मन ) तो क्या खिन्नता जन्य मोह के व्याज से मैंने स्वयं को प्रकट कर दिया? अच्छा (प्रकट में) मैं रसोई का कार्य करने वाला बाहुक हूँ ।
राजा - तब नल हूँ इस प्रकार से क्यों कहा?
नल- मैं क्या नल हूँ, ऐसा कहा अथवा मैं नल नहीं हूँ, फिर भी महाराज ने जो यह सुना कि 'मैं नल हूँ इस सन्देह का कारण नाट्यरस से उत्पन्न महाराज के चित्त की व्याकुलता है।
राजा - निश्चय ही मैं भ्रम में पड़ गया हूँ नहीं तो, महाराज निषध के कुल में उत्पन्न देखने योग्य रूप-सौन्दर्य वाला वह नल कहाँ ? और समस्त अङ्गों के वक्र होने से कुरूप आकृति वाले आप कहाँ ?
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