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________________ १६५ षष्ठोऽङ्कः मातः प्रसीद वसुधे! विहितोऽञ्जलिस्ते पातालमूलपथिकं विवरं प्रयच्छ। आशीलताशतघनेषु फणीन्द्रवक्त्र कोणाश्रमेषु ननु येन भवामि शान्तः।।१५।। दमयन्ती- (किञ्चित परिक्रम्य) (१) कथं मज्झण्हो वट्टदि? न सक्केमि दिणेसरतावसंतावेण परिक्कमिदं। (ऊर्ध्वमवलोक्य सबाष्पम्) हा देव दिणेसर! किं दहेसि किरणेहिं देहदहणेहिं? जइ सो निशढाहिवई अदयमणो किं तुहं पि तहा?।।१६।। राजा- (सरभसं दमयन्ती प्रति) आः स्त्रीरत्न! पतिव्रते! शठमतेः क्रूरस्य दुष्टात्मनः पत्युस्तस्य पुनः पुनः सकलुषां मा मा गृहाणाभिधाम्। माँ वसन्धरे! प्रसन हो जाओ, तुम्हारे लिए करसंपुट जोड़ता हूँ कि पाताललोक में जाने के लिए पथिक नल को बिल (मार्ग) दो, जिससे अयाचित सुख की कामना रूपी लता से सघन शेषनाग के झुके हुए फण रूपी आश्रम में मैं निश्चय ही शान्त (निस्तब्ध) हो जाऊँ।।१५।। दमयन्ती- (थोड़ा घूमकर) क्या दोपहर हो गई? सूर्य के तेज से सन्तप्त मैं चलने में समर्थ नहीं हूँ। (ऊपर की ओर देखकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से) हे भगवान् सूर्य! शरीर को जलाने वाली किरणों से (तुम मुझे) क्यों जला रहे हो? यदि वह निषधदेश का राजा नल निर्दयी हो गया, तो क्या तुम भी वैसे ही हो गये हो?।।१६।। राजा- (शीघ्रता से दमयन्ती के प्रति) (१) कथं मध्याह्नो वर्तते? न शक्नोमि दिनेश्वरतापसन्तापेन परिक्रमितुम्। हा देव दिनेश्वर! किं दहसि किरणैर्देहदहनैः? यदि स निषधाधिपतिरदयमनाः किं त्वमपि तथा?।।१६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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