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________________ नलविलासे मुक्ताहार! विहारमातनु ननु स्वैरं क्वचित् साम्प्रतं पुष्पापीड! किमद्य पीडयसि मे सीमन्तसीमाङ्गणम्? मञ्जीराणि! रणन्ति किं श्रवणयोः पुष्णीथ दुःस्थां व्यथां? त्यक्ता तेन यदर्थमर्थितवती युष्मासु मैत्रीमहम्।।१४।। राजा- (सरभसमुत्थाय) पतिव्रते! पतिव्रते! विशरारूणि प्रायेण शरीरिप्रेमाणि। विशेषतस्तव तस्य भर्तुरकुलीनस्य। तदलममुना गवेषितेन। अस्माकमभ्यर्णमुपैहि। इतः प्रभृति नस्तत्रभवती देवता वा माता वा सुता वा। सपर्णः- देव! कोऽयं व्यामोहः? ननु विज्ञप्तं मया देवाय नटविभीषिकेयम्। सिंहासनालङ्करणेन प्रसादः क्रियताम्। __ (राजा सविलक्षमुपविशति) नल:- (सखेदमात्मगतम्) ऐ मुक्ताहार! अब अन्यत्र अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा का विस्तार करो। ऐ पुष्पापीड! मेरी माँग रूपी आङ्गन में अब तुम क्यों पीड़ा दे रही हो? ऐ नूपुरो! अत्यन्त कष्टकारी पीड़ा को बढ़ाने के लिए कानों में ध्वनि क्यों कर रहे हो? (क्योंकि जिसके लिए मैंने तुम लोगों से मित्रता की प्रार्थना की थी, उसी ने मेरा त्याग कर दिया है।।१४।। राजा- (शीघ्रता से उठकर) पतिव्रते! पतिव्रते! कदाचित् शरीरधारियों का प्रेम (स्नेह) टूट ही जाता है। विशेषकर तुम्हारे उस अकुलीन पति का। इसलिए (उसको) इस प्रकार से खोजना व्यर्थ है। हमारे घर चलो। वहाँ आपकी देवता, माता, पुत्री प्रभृतिजन हैं। सपर्ण- महाराज! यह कैसी व्याकुलता है? मैंने आपसे पहले ही कह दिया है कि यह नटों का डराने का साधन है। सिंहासनारूढ़ होकर प्रसन्नता को प्राप्त करें। (राजा विस्मयान्वित सा बैठ जाता है) नल- (खेदपूर्वक अपने मन में) टिप्पणी- आपीड, शेखर, 'शिखास्वापीडशेखरौ'- इत्यमरः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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