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षष्ठोऽङ्कः राजा- (सभयम्) येऽस्या एतामवस्थामवलोकयन्ति? नल:- नहि नहि
यैरेष कल्मषमयो न कृतस्तदानी
मेवाग्निसादपनयैर्हतलोकपालैः।।१३।। राजा- (सरोषम्) बाहुक! वृथा भगलवतो लोकपालानुपालम्भसे। ननु नलं पश्यन्तोऽपि पापेनोपलिप्यन्ते लोकपालाः, किं पुनर्व्यापादयन्तः?
पिङ्गलक:- (सास्रम्) (१) अज्जे! न य से पाविट्टे तुह पदी, किं पुण एसा पडिच्छाया।
दमयन्ती- (२) अज्ज! एसा मम ज्जेव पडिच्छाया, न उण अज्जउत्तो? ता किं सच्चकं ज्जेव परिचत्तम्हि?
(आत्मानमवलोक्य सखेदम्)
राजा- (भय से साथ) तो जो इसकी इस दशा को देख रहे हैं? नल- नहीं, नहीं
जिस नीति रहित हतभाग्य वाले दिक्पालों के द्वारा उस पापमय को उस समय में अग्निसात् नहीं किया गया (अर्थात् जलाकर भस्म नहीं कर डाला)।।१३।।
राजा- (क्रोध के साथ) बाहुक! दिक्पाल देवों को बेकार उलाहना दे रहे हो। वस्तुत: नल को देखते हुए भी वे दिक्पाल पाप से लिप्त हो रहे हैं, तो फिर उनका दोष क्यों कह रहे हो?
पिङ्गलक- (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) आयें! यह तुम्हारा अधम स्वामी नहीं है, अपितु तुम्हारी परछाईं है।
दमयन्ती- आर्य! यह मेरी ही परछाईं है, आर्यपुत्र नहीं? तो क्या वस्तुत: मैं छोड़ दी गई हूँ?
(अपने आप को देखकर खेद के साथ)
(१) आर्ये! न च स पापिष्ठस्तव पति:, किं पुनरेषा प्रतिच्छाया।
(२) आर्य! एषा ममैव प्रतिच्छाया न पुनरार्यपुत्रः? तत् किं सत्यमेव परित्यक्तास्मि?
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