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________________ षष्ठोऽङ्कः १५३ राजा- अमात्य! पश्याकृतिविरुद्धमस्य बाहुकनानो वैदेशिकस्य कलासु कौशलम्। किमेतस्य सर्वाङ्गवक्रस्य तदिदमश्वलक्षणवैलक्षण्यम्, सोऽयं सूर्यपाकवविधिः, सेयमपरास्वपि क्रियासु चातुरी सम्भवति। सपर्ण:- अस्मिन् नयनोद्वेगाञ्जने कलाकलापमावपन्नसंशयं विरचिन्तिः। जीवलक:- देव! बाहुकः प्रणमति। राजा- बाहुक! इत आस्यताम्। (नलः प्रणम्योपविशति) (स्मृत्वा) किमद्यापि चिरयन्ति रङ्गोपजीविनः? जीवलकः- भो भरतपुत्राः! प्रस्तूयतां नाट्यम्। (प्रविश्य) सूत्रधारः- नलान्वेषणनामप्रबन्याभिनयावधानाय महाराज दधिपर्णमभ्यर्थये। राजा- मन्त्रिन्! आकृति के विपरीत इस बाहुक नामक विदेशी के कला नैपुण्य को तो देखो। यद्यपि इसके सभी अङ्ग टेढ़े हैं तथापि यह अश्व के लक्षणों को जानने में निपुण है, यह सूर्य की किरणों से पाक क्रिया करता है, इसी प्रकार अन्य क्रियाओं में भी इसकी निपुणता सम्भव है। सपर्ण- नेत्रों के लिए क्षोभकारक काले पुरुष में कला समूह को स्थापित करते हुए निस्सन्देह ब्रह्मा को भ्रान्ति हो गयी (जिसके कारण इसका रंग और सर्वाङ्ग टेढ़ा बना दिया)। जीवलक- महाराज! बाहुक प्रणाम करता है। राजा- बाहुक! यहाँ बैठिये (नल प्रणाम करके बैठता है)। (स्मरण करके) नट लोग अब देरी क्यों कर रहे हैं? जीवलक- हे नटो! अभिनय आरम्भ करें। (प्रवेश करके) सूत्रधार- नल को खोजने वाले नामक नाटक के अभिनय (को देखने के लिए) महाराज दधिपर्ण से सावधान होने के लिए (हम) प्रार्थना करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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