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________________ १५१ षष्ठोऽङ्कः अहह! कथमनिमित्तशत्रुर्दुरात्माऽहमात्मैकशरणां तां तपस्विनीमपाकृतवान्! (ऊर्ध्वमवलोक्य) न प्रेम नाप्यभिजनं न गुणं न सेवां चित्ते दधत्युपकृति किल ये श्रयन्तः किं दैव! निहता भवता हतास्ते गर्भस्थिताः प्रसवमात्रभृतोऽथ माः।।३।। __(स्मृत्वा सचिन्तम्) स्फुरति तिमिरे घूकवाते ध्वनत्यतिभैरवं ककुभि ककुभि व्यालानीके विसर्पति सध्वनौ। . चरममचलं याते पत्यौ रुचां चकितेक्षणा शरणमधिकं भीरुर्देवी करिष्यति किं वने?।।४।। हुए भयंकर कर्म का आचरण करने वाले मुझ (नल) को धिक्कार है (जिससे) मैं कहीं मुख दिखाने योग्य नहीं रह गया और न तो मैं सज्जनों की श्रेणी के योग्य (ही) रह गया (हूँ)।।२।। खेद है, बिना कारण के होने वाले शत्र रूपी दुष्टात्मा मैंने स्वयं रक्षा करने वाली उस पतिव्रता (दमयन्ती) का किस प्रकार से अनादर किया। (ऊपर की ओर देखकर) जो सेवा करने वाले हैं (उन्होंने भी) न तो प्रेम को, न कुल को न गुण को, न सेवा को और न तो उपकार को ही हृदय में धारण किया। (अत:) हे प्रारब्ध! गर्भ में ठहरे हुये या अभी ही जन्म लेने वाले भाग्यहीन वे सभी भूलोकवासी तुम्हारे द्वारा क्या नहीं मारे गये (अर्थात् मारे ही गये)।।३।। (स्मरण करके चिन्ता के साथ) किरणों के स्वामी सूर्य के अस्ताचल चले जाने पर (अर्थात् अस्त हो जाने पर) अन्धकार में उल्लुओं की अति भयावह धूं-धूं की ध्वनि फैल रही है। प्रत्येक दिशा में ध्वनि करते हुए हिंसक जीव-समूह भ्रमण करने लगे हैं। ऐसे में आश्चर्य चकित १. ख. ग. निहिता टिप्पणी- घूक = उल्लू “दिवान्धः कौशिको घूको दिवाभीत: निशाटनः। इत्यमरः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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