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षष्ठोऽङ्कः।
- (ततः प्रविशति नल:) नल:- (दमयन्तीमनुस्मृत्य सानुतापम्)
राज्यं हारितवानहं नहि नहि व्याधत्त सर्वं विधिदेवीं हाऽत्यजमस्मि तत्र विपिने यद्वा स्त्रियो बन्धनम्। तां पश्येयमहं वनेऽथ गहने तस्याः कुतः प्राणितं हीमें नो न दया दुरोदरकृतः का वा त्रपा का कृपा?।।१।।
___ (पुनः सखदेम्) नास्माई नयमस्मि नाधिमनसं प्रेमाणमाशिश्रियं नाकार्ष कुलमुज्ज्वलं हृदि कृपां पापो न वाऽजीगणम्। तां तस्मिन् गहने वने विरहयन् कर्माचरं दुर्जरं धिग् मां नाहमवेक्षणीयवदनो नार्हामि पति सताम्।।२।।
(उसके बाद रङ्गमञ्च पर नल प्रवेश करता है) नल- (दमयन्ती का स्मरण करके खेद के साथ)
मैं (अपना) राज्य हरण करवाने वाला हूँ, ओह, वहाँ जंगल में मैं देवी दमयन्ती को छोड़ सकता हूँ या मैं (नल) उस दमयन्ती को चोट पहुँचा सकता हूँ, नहीं, नहीं यह सब प्रारब्ध ने ही करवाया है अब, हमें उसको देखना चाहिए कि वहाँ घने वन में देवी दमयन्ती कैसे जीवित हैं। (ओह) दया रहित मुझे धिक्कार है अथवा जुआरी के लिए क्या लज्जा (और) क्या दया?।।१।।
(पुनः खेद के साथ) मैंने नीति का स्मरण नहीं किया (अर्थात् आश्रय नहीं लिया), मन में मैंने प्रेमी का आश्रय नहीं लिया (अर्थात् मैंने मन से प्रेमी की सेवा नहीं की), अपने कुल को उज्ज्वल नहीं (अर्थात् अपने कुल को कलङ्कित) किया और हृदय में न तो दया की और न ही पापों की परवाह (ही) की। उस घने वन में उस (दमयन्ती) को छोड़ते
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