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________________ पञ्चमोऽङ्कः १४७ भवतु, चरमं देवीवदनेन्दुविलोकनं कृत्वा द्रजामि! (विलोक्य सास्रम्) स्पृशति न मणिज्योत्स्नाच्छन्नं निशा-जुषः पुरा सुचिरमनिलोऽप्यङ्गं यस्या नलादिव शङ्कितः। विगतशरणा क्षुत्क्षामाङ्गी पटच्चरधारिणी वनभुवि हहा! सेयं शेते विदर्भपतिप्रसूः।।१८।। हे देवि! एष कर्मचण्डालो नलः प्रयाति। (कतिचित् पदानि दत्त्वा सरोषमात्मानं प्रति) आः क्षत्रियापसद! पुरुषसारमेय! भर्तृजाल्म! श्याकनायक! कृपाविकल! हतनल! कथमिमामेकाकिनीमात्मैकशरणांसधर्मचारिणीमस्मिन् गहने वने सन्त्यज्य प्रचलितोऽसि? भवतु, वनदेवताः शरणं कृत्वा व्रजामि। (प्रतिनिवृत्य दिशोऽवलोक्य) कच्चित् काननदेवता:! शृणुत मे यस्या वपुः कल्पयन् जातः शिल्पिगणाग्रणी: कमलभूः सेयं विदर्भात्मजा। - अच्छा, अन्तिम बार देवी दमयन्ती के चन्द्रमा रूपी मुख को देखकर चला जाता हूँ (देखकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से)। __ पहले, रत्नों के प्रकाश से ढके हुए जिस दमयन्ती के अङ्गों का मानो नल के भय से दीर्घकाल तक वायु भी स्पर्श नहीं करता था, खेद है कि असहाय हो गई, भूख से दग्ध शरीरावक्वों वाली, पहिले पहने हुये वस्त्र को ही धारण करने वाली वही (दमयन्ती) आज वन की भूमि पर सो रही है।।१८।। हे देवि! पतित कर्म करने वाला यह नल जा रहा है। (कुछ कदम जाकर क्रोध के साथ अपने मन में) ओह, क्षत्रियों में नीच! पुरुषरूपी कुक्कुर! पतियों में लुच्चा! चाण्डालों का नेता! दयारहित अधम नल! (तुम) अपनी पत्नी दमयन्ती को उसकी सुरक्षा का भार उसके ही ऊपर छोड़कर घनघोर जंगल में उसका परित्याग करके कैसे जा रहे हो? अच्छा, वन देवताओं को रक्षक बनाकर मैं जा रहा हूँ (लौटकर दिशाओं में देख कर) हे वन देवताओ! सुनिये, हमारे लिए जिसके शरीर की रचना करते हुए कमलयोनि ब्रह्मा वास्तुकारों में सर्वश्रेष्ठ हो गये, यह वही दमयन्ती है। (अतः) कठोर कर्म करने वाले झूठ प्रेष्ठ पुरुष के द्वारा विना किसी कारण के त्याग दी गई इस दमयन्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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