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नलविलासे
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अपि च
देवीनीविच्छिदालोल! निर्दाक्षिण्यशिरोमणे! सवाच्यः स विरिञ्चोऽपि हस्त! त्वां दक्षिणं सृजन्।।१५।।
(विमृश्य) यदि वा द्यूतकारस्य मे नामाकृत्यमस्ति ते। आ:! गृहाण कृपाणं हुं हुं विधेहि द्विधांशुकम्।।१६।।
(अंशुकं द्विधाकृत्य शनैरुत्थाय) प्रातभूत! वयस्य केसर! सखे पुन्नाग! यामो वयं मा स्मास्माकमनार्यकार्यपरतां जानीत यूयं हृदि। द्यूतेच्छा क्व च कूबरस्य निषधाभर्तुः क्व चार्टर्जयो
वैदर्भीत्यजनं क्व चैष निखिलः कल्पः प्रसादो विधेः।।१७।। और भी
देवी (दमयन्ती) के कमरबन्द को खोलने में चञ्चल, अनुदारों में अग्रगण्य हे हस्त! तुमको दाहिना (उदार, अनुकूल) हाथबनाते हुए वह ब्रह्मा भी (आज) उपहास के पात्र हो गये।।१५।।
(विचार करके) अथवा मुझ जुआरी का ऐसा कौन सा कर्म शेष है जो तुम्हारे (हाथ) द्वारा नहीं करने के योग्य है (अत:) अरे! तलवार ग्रहण करो और वस्त्र को दो भागों में बाँट दो अर्थात् काट दो।।१६।।
__ (वस्त्र के दो टुकड़े करके धीरे से उठकर) भाई आम्रवृक्ष! मित्र केसर! दोस्त पुत्राग (नाग केसरवृक्ष)! हम जा रहे हैं। आप लोग अपने हृदय में हमको अनार्योंचित कर्म करने वाला न जाने। द्यूत-क्रीड़ा की इच्छा वाला कुबर कहाँ? और पासे से जीत लिया गया नल कहाँ? तथा इस प्रकार से जंगल में (अकेली) दमयन्ती कहाँ? यह सम्पूर्ण (घटना) अपना कर्तव्य पूरा करने में समर्थ ब्रह्मा का अनुग्रह है (अर्थात् ब्रह्मा के इच्छानुकूल ही घटना घटित होती है)।।१७।।
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