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नलविलासे अस्याः कर्कशकर्मणा प्रियतमाभासेन निष्कारणं त्यक्तायाः शरणं स्थ मा स्म नलवन्निस्त्रिंशतां गच्छत।।१९।।
(पुनरञ्जलिं बद्ध्वा) निद्राच्छेदे क्व दयित! गतोऽसीति तारं वदन्ती विन्यस्यन्ती दिशि दिशि दृशं वाष्पकल्लोललोलाम्। देव्यः सर्वा वनवसतयो मातरः! प्रार्थये व
स्तत् कर्तव्यं कलयति तथा कुण्डिनाध्वानमेषा।।२०।। (१) अज्ज! एदं शिशिलशलिलपूलिदं शलं, ता एहि सत्थवाहस्स गडुय कहेमि।
राजा-कथं पक्कणवासी कोऽप्यागच्छति (साशङ्कम्) यदि कथमप्येषा शबरस्यास्य लोलाहलेन निद्रामपजाहात् तदा मामवबधीयात्। तद्
के (आप सब) रक्षक होवें (और आपलोग) नल की तरह कठोरता को नहीं प्राप्त करें (अर्थात्, आपलोग भी नल की तरह कठोर हृदय वाले नहीं हो जाँय)।।१९।।
(पुनः अञ्जलि बाँधकर) हे वनदेवियो! निद्रा भंग हो जाने पर अश्रुपूर्ण चञ्चल नेत्रों से प्रत्येक दिशा में देखती हुई जोर से बोलती हुई (जब कहेगी कि) हे प्रिय! तुम कहाँ गये हो। (तब) हे वन में निवास करने वाली माताओ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि (आप लोग) वह कार्य करें जिससे यह कुण्डिन नगरी के रास्ते को जान जाय (अर्थात् आप लोग इसे कुण्डिन नगर जाने वाला रास्ता बता दें)।।२०।।
(नेपथ्य में) आर्य! यह शीतल जल से पूर्ण सरोवर है, अत: आओ झुण्ड के नेता से जाकर कहते हैं।
राजा- यह तो शबरालय में रहने वाला कोई भील आ रहा है (सन्देह के साथ) यदि भील के शोरगुल से कहीं दमयन्ती की निद्रा भंग हो जायेगी तो यह मुझे रोक लेगी। तो मैं चलता हूँ। देवि! यह अन्तिम बार बोल रहा हूँ। वनदेवता तुम्हारे रक्षक
(१) आर्य! एतत् शिशिरसलिलपूरितं सरः, तदेहि सार्थवाहाय गत्वा कथयामि।
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