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________________ xii नलविलासे दमयन्ती को सान्त्वना देते हुए दमयन्ती के आधे वस्त्रों में लिपटे हुए, भूख, प्यास और थकावट से व्याकुल वे दोनों घूमते हुए किसी एक स्थान पर पहुँचे और वहीं ठहर गये। जहाँ राजा नल, दमयन्ती के साथ भूमि पर बैठ गये और थकावट से व्याकुल दोनों शय्यादि से रहित जमीन पर ही सो गये। किन्तु दमयन्ती तो गाढ़ निद्रा के वशीभूत हो गई पर राज्य का अपहरण, सब बन्धुओं से छूटना और वन में रहना इत्यादि दु:खों से व्याकुल हृदय वाले नल इस विषय में विचार करने लगे कि दमयन्ती का त्याग करना उचित होगा अथवा नहीं। क्योंकि मेरे कारण ही यह दुःख में पड़ी है। और यदि मैं इसे छोड़ देता हूँ, तो यह निश्चय ही अपने पिता के पास चली जायेगी। जिससे इसका शारीरिक क्लेश समाप्त हो जायेगा। ऐसा विचार कर दमयन्ती के आधे-वस्त्र को काटकर चले जाने की इच्छा वाले नल चिन्ता मग्न थे ही कि उसी समय उन्हें म्यान से रहित एक उत्तम तलवार दिखाई दी, जिसके द्वारा दमयन्ती के वस्त्र को काट कर उसे निद्रावस्था में छोड़कर नल वहाँ से चले गये। किन्तु, वहाँ से कुछ दूर चले जाने के बाद दमयन्ती से अत्यधिक स्नेह रखने वाले नल पुन: उसी स्थान पर लौटे तथा दमयन्ती को उस अवस्था में देखकर वे अत्यधिक रोने लगे और सोचने लगे, जिस मेरी प्रिया दमयन्ती को पहले सूर्य और वायु भी नहीं देख सकते थे, वही आज अनाथ के समान वन भूमि पर सो रही है। किन्तु, जागकर अपनी स्थिति को देखकर किस प्रकार पागलों के समान हो जाएगी। यह पतिव्रता मुझसे अलग होकर इस हिंसक पशुओं और सर्पो से भरे हुए घोर वन में अकेली कैसे घूमेगी? यह सोचते हुए दु:ख से टूटे हुए हृदय वाले नल कलि के प्रभाव से खींचे जाते हुए वहाँ से दूर चले जाते थे और पुन: उसी स्थान पर लौट आते थे। अन्ततः कलियुग के वश में होकर दुःखी राजा नल अपने मन में उठते हुए विचारों की परवाह न करते हुए अपनी स्त्री को शून्य वन में अकेली छोड़कर चले गये।२ तत्पश्चात् थकान दूर होने पर दमयन्ती जागी और अपने को नल से रहित देखकर डर गई और शोकाकुल होकर विलाप करती हुई कहने लगी, हे नाथ! आप सत्यवादी और धर्मज्ञ हैं। तब ऐसे असत्य वचन कहकर मझ सोती हई को छोड़कर क्यों चले गये। मैंने तो आपका कोई अपकार नहीं किया था, तब आपने मुझे क्यों छोड़ दिया। यदि आप परिहास कर रहे हैं, तो वह भी पर्याप्त हो गया। अब आप आ जाइए, क्योंकि इस निर्जन वन में मैं अकेली डर रही हूँ। आप लताओं में छिपकर मुझसे बात नहीं करते हैं। हे नाथ! मुझे अपने अथवा और किसी वस्तु के विषय में शोक नहीं है, परन्तु आप अकेले किस दशा में पड़े होंगे। भूख, प्यास और थकावट से व्याकुल होकर जब आप सन्ध्यासमय किसी वृक्ष की जड़ में बैठेगे, तब वहाँ मुझको १. महाभारत, वनपर्व ६२/१-१९। २. महाभारत, वनपर्व ६२/२०-२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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