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________________ भूमिका xi रे दुर्बद्धे ! तेरे वस्त्र को हरकर ले जाने की इच्छा करने वाले हम वे ही पासे हैं, जिनको तुमने खेला था, तुमको वस्त्रसहित जाते देखकर हम प्रसन्न नहीं थे। यह कहकर वह पासे अदृश्य हो गये। पासों को अदृश्य होते और अपने को नङ्गा देखकर उत्तम यशस्वी राजा नल दमयन्ती से कहने लगे कि हे दमयन्ति ! जिन पासों के भय से किसी भी निषेध नगर के निवासी ने मेरा सत्कार नहीं किया, वे ही पासे आज पक्षी होकर मेरा वस्त्र भी छीन लिये जा रहे हैं। मैं अति कठोर आपत्ति को प्राप्त होने के कारण दुःखी होकर मुच्छित - सा हुआ जा रहा हूँ। मैं तुम्हारा पति हूँ अत: मैं जो कुछ कहता हूँ, उन अपने लिए हितकारी मेरे वचनों को सुनो- ये अनेक मार्ग ऋक्षवान् पर्वत और अवन्ती को पार करके दक्षिणापथ को जा रहे हैं । यही समुद्र में जाने वाली पयोष्णी नदी और महान् पर्वत विन्ध्याचल है। फल और फूलों से भरे हुए ये ऋषियों के आश्रम हैं। यह मार्ग विदर्भदेश को जाता है और यह कोसलदेश का मार्ग है इसके आगे दक्षिणदेश है और यह दक्षिण का मार्ग है। नल के उक्त वचन को सुनकर अत्यन्त व्याकुल हृदय वाली दमयन्ती दीनता से भरे वचन में कहने लगी- नाथ! आपके संकल्प का बार-बार विचार करके मेरा हृदय घबड़ाता है और सभी अङ्ग शिथिल हुए जाते हैं । हे महाराज ! राज्यहीन, वस्त्रहीन और धन से हीन, भूख और श्रम से पीड़ित आपको इस निर्जन स्थान में अकेला छोड़कर मैं कैसे चली जाऊँ ?' साथ ही इस घोर वन में चलते-चलते जब आप थक जायेंगे, भूख, प्यास और चिन्ता से व्याकुल होंगे, तब मैं आपके सुख के निमित्त आपके परिश्रम को दूर करूँगी। मैं आपसे सत्य कहती हूँ, कि वैद्यों के मत में सब दुःखों में स्त्री के समान औषध और कुछ नहीं है । दमयन्ती की यह वाणी सुनकर नल ने कहा हे देवि! तुम जो कहती हो वह सब सत्य है । मैं अपने प्राण को छोड़ सकता हूँ, किन्तु तुम्हें नहीं छोड़ सकता। यह सुनकर दमयन्ती ने कहा यदि आप मुझे छोड़ना नहीं चाहते हैं, तो आपने यह क्यों कहा कि यह मार्ग विदर्भदेश का है। हे राजन्! आपके चित्त को इस घोर आपत्ति ने छीन लिया है, अतः छोड़ने की इच्छा नहीं होने पर भी आप मुझे छोड़ सकते हैं। बारम्बार आपके द्वारा विदर्भ-मार्ग का संकेत किया जाना मेरे शोक को बढ़ा रहा है। और यदि आपकी इच्छा यह है कि मैं विदर्भदेश चली जाऊँ, तो श्रेयस्कर यही होगा कि हम दोनों साथ-साथ विदर्भनगरी चलें। वहाँ विपत्ति में पड़े आपका मेरे पिता अत्यधिक सम्मान करेंगे। यह सुनकर राजा नल बोले कि यह ठीक है कि तुम्हारे पिता मेरे भी पिता ही हैं, किन्तु देवि ! विपत्ति के दिनों में मेरा वहाँ जाना ठीक नहीं हैं । राज्यादि से रहित मैं वहाँ तुम्हारे शोक को ही बढ़ाऊँगा, अतः वहाँ जाना उचित नहीं है । इस प्रकार १. महाभारत, वनपर्व ६१ / १५-२५ । २. महाभारत, वनपर्व ६१ / २५-३४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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