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नलविलासे दमयन्ती- (सास्त्रम्) (१) अज्जउत्त! किं नेदं? । राजा- (सलज्जम्) देवि! पूर्वसंस्कारो मां विप्लवयति।
__ (दमयन्ती मन्दं रोदिति) देवि! अहमिदानीं ते पतिश्च पदातिश्च। तद् यावत् कुतोऽपि शीतमम्भः समानयामि तावत् तिलकतरुतले तिष्ठ। (दमयन्ती तथा करोति)
(परिक्रम्य सखेदाश्चर्यम्) क्व तद् धूविक्षेपक्षिपितनृपतिक्ष्मापतिपदं क्व चावस्था सेयं मृगमिथुनलीलायितवती! न यो वाचः पात्रं भवति न दृशो पि मनसस्तमप्यर्थं पुंसां हतविधिरकाण्डे घटयति।।११।।
दमयन्ती- (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) आर्यपुत्र! यह क्या (कह रहे हैं)? राजा- (लज्जा के साथ) देवि! पूर्व का संस्कार मुझे भ्रमित कर रहा है।
(दमयन्ती मन्द स्वर से विलाप करती है) देवि! इस समय मैं तुम्हारा पति भी हैं और पैदल (चलने वाला) सिपाही भी। अत: जबतक (मैं) कहीं से शीतलजल लेकर आ नहीं जाता हूँ तब तक (तुम) तिलकवृक्ष के नीचे ठहरो (दमयन्ती वैसा ही करती है)।
(घूमकर खेद और आश्चर्य से) कहाँ तो कटाक्ष (मात्र) से तिरस्कृत राजाओं की पृथ्वी का स्वामी राजा नल? और कहाँ मृगयुगल की (तरह) क्रीड़ा करते हुई यह अवस्था (दशा)?, जो न (तो) वाणी का विषय है, न (तो) देखने के योग्य है और न (तो) मन से ही सोचा जा सकता है, पुरुष के उस विषय को दुर्दैत अकस्मात् घटा (उपस्थित कर) देता है।।११।।
अच्छा, कहीं जल खोजता हूँ। (देखकर शीघ्रतापूर्वक) यह तो तपस्वी का आश्रम जैसा (लगता) है। (अच्छी तरह से देखकर) तो क्या सन्यासी जैसा (यह) उस लम्बोदर
(१) आर्यपुत्र! किं न्वेतत्?
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