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पञ्चमोऽङ्कः
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भवतु, विलोकयामि क्वचिदपि पयः । (विलोक्य ससम्भ्रमम्) कथं तापसाश्रम इव ? (सम्यगवलोक्य) कथं तापसः सदृशस्तस्य लम्बोदरनाम्नः 'कापालिनः । यदि वा नासौ सः । अयं खलु कुब्जः खञ्जश्च ।
(ततः प्रविशति तापसः )
तापस:- निर्विण्णोऽस्मि मार्गविलोकनेन । परमद्यापि न स दुरात्मा समायाति । अवश्यानुष्ठेयश्च गुरोरादेशः । तदितः सरः सेतौ स्थित्वा प्रतिपालयामि । ( साशङ्कम् ) ध्रुवमसौ मामुपलक्षयेत्। भवतु, वेषान्तरेण सञ्चरे । ( विलोक्य) कथं प्राप्तः पापीनायथ' सा दुर्विनीता क्व? । भवतु पुरो ज्ञास्यामि । ( अभिमुखमुपसृत्य ) स्वागतमतिथये ।
राजा - नमो मुनये ।
तापस:- भद्राणि पश्य । (अपवार्य विपरीतलक्षणया) महाभाग ! वपुर्लक्षणविसंवादिनी ते दशा । तत् कथय कोऽसि ? कथं दुःस्थावस्थः ? राजा - (सब्रीडम्) मुने! भूपतिचरोऽस्मि ।
नामक कापालिक का (अनुचर है ) । नहीं, यह वह नहीं है । यह तो है।
( उसके बाद तपस्वी प्रवेश करता है )
तापस- मार्ग देखते-देखते खिन्न हो गया हूँ । परन्तु वह दुष्टात्मा अभी तक नहीं आया है। और गुरु की आज्ञा का पालन भी करना ही है। अतः यहाँ सरोवर के तट पर स्थित होकर (उसकी) प्रतिक्षा करता हूँ। (आशङ्का के साथ) यह निश्चय ही मुझे देख रहा है। अच्छा, वेश बदलकर जाऊँगा । (देखकर) यह पापी तो किसी प्रकार मिल गया पर वह दुराचारिणी कहाँ है ? अच्छा बाद में समझँगा । (सामने पास जाकर) अभ्यागत का स्वागत है ।
१. ख. ग. कपा० । २. क. अथवा ।
कुबड़ा
राजा - मुनि को प्रणाम करता हूँ ।
तापस- कल्याण होवे (अपवारित में विपरीत मुद्रा से ) श्रीमान् ! शरीर की आकृति से तो आपकी विरोधात्मक स्थिति (अवस्था) सूचित होती है । अत: कहिये (कि आप ) कौन हैं ? इस दुर्दशा को कैसे प्राप्त हुए ?
राजा - (लज्जा के साथ) मुने! पहले मैं राजा था।
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