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पञ्चमोऽङ्कः
१३७ दमयन्ती- (१) अज्जउत्त! सुहावत्थाणमेदे कोदूहलकारिणो, दुहा'वत्थाणं उण विसेसदो संतावकारिणो। राजा- सत्यमाह देवी।
सुस्थे हृदि सुधासिक्तं दुःस्थे विषमयं जगत्।
वस्तु रम्यमरम्यं वा मनःसङ्कल्पतस्ततः।।१०।। दमयन्ती- (२) अज्जउत्त! परिस्समेण तिसिदम्हि।
राजा- देवि! उदन्या रत्वां बाधते। कोऽत्र भोः? अये! सुरभिशीतलजलकरकमुपनयत (अवलोक्य) कथं न कोऽप्यग्रतः पार्श्वतोऽपि न कश्चित्?
दमयन्ती- आर्यपुत्र! ये (सभी वस्तुयें) सुखी अवस्था में (तो) उत्कण्ठा की हेतु हैं, (किन्तु) दुःखी अवस्था में तो (ये सभी वस्तुये) विशेषरूप से सन्ताप (पीड़ा) देने वाली (होती) हैं।
राजा- देवी ने यथार्थ ही कहा है। (क्योंकि)
हृदय के प्रसन्न होने पर, तो (सबकुछ) अमृत से सीचे गये की तरह लगता है (किन्तु हृदय के) दुःखी होने पर (सारा) संसार (ही) विषमय हो जाता है, इसलिए (किसी) वस्तु की सुन्दरता या असुन्दरता मन के सुखी और दुःखी होने पर ही निर्भर करती है।।१०।।
दमयन्ती- आर्यपुत्र! (मार्गजन्य) परिश्रम के कारण (मैं) पानी पीने की इच्छुक हूँ (अर्थात् मुझे प्यास लगी है)।
राजा- देवि! तुम्हें प्यास सता रही है। कौन है यहाँ? अरे, सुगन्धित शीतल जल वाला पात्र लाओ (देखकर) न तो कोई सामने है (और) न तो कोई समीप मैं ही, ऐसा क्यों?
(१) आर्यपुत्र! सुखावस्थानामेते कौतूहलकारिणः, दुःखावस्थानां पुनर्विशेषतः सन्तापकारिणः।
(२) आर्यपुत्र! परिश्रमेण तृषिताऽस्मि। १. ख. ग. दुहायत्थाणं। २. क. वां।
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