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नलविलासे
( राजा सबाप्पं स्वेदाम्भ: प्रमृज्य सिचयाञ्चलेन वीजयति)
(निःश्वस्य ) (१) अज्जउत्त! कित्तियं अज्ज गंतव्वं ? राजा - यावद् देवि! समाक्रमितुमलम् ।
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(दमयन्ती सखेदमुत्थाय परिक्रामति)
(स्वगतम्) विनोदयाम्यस्याश्चेतः कान्ताररामणीयकोपवर्णनेन येनेयं चरणचङ्क्रमणखेदं न वेदयति । (प्रकाशम्) देवि ! पश्य पश्यएते निर्झरझात्कृतैस्तुमुलितप्रस्थोदराः क्ष्माधराः किञ्चैते फलपुष्पपल्लवभरैर्ध्वस्तातपाः पादपाः । चक्रोऽप्येष वधूमुखार्द्धदलितैर्वृत्तिं विधत्ते बिसैः कान्तां मन्द्ररुतस्तथैष परितः पारापतो नृत्यति । । ९ । ।
(राजा अश्रुपूर्णनेत्रों से स्वेद बिन्दु को पोंछकर वस्त्र के आँचल से हवा करता है) ( श्वास लेकर ) आर्यपुत्र ! अब (और) कितनी दूर जाना है ? राजा - जबतक देवी चलने में समर्थ हों ।
(दमयन्ती खेद के साथ उठकर घूमती है)
(अपने मन में ) मैं वन के सौन्दर्यवर्णन के द्वारा इस (दमयन्ती) का मन बहलाता हूँ, जिससे यह पैदल चलने के कारण उत्पन्न कष्ट का अनुभव न करे। (प्रकट में) देवि! देखो, देखो ---
पर्वतीय झरनों के कल-कल शब्द से शब्दायमान कन्दराओं वाले ये पर्वत हैं। (और) फल-फूल तथा पत्र समूह के कारण ग्रीष्म के ताप से रहित (छाया वाले) ये वृक्ष समूह हैं। यह चक्रवाक पक्षी अपनी प्रिया चक्रवाकी द्वार आधी चबाई गई कमलनाल को खा रहा है। तथा यह मन्द शब्द करने वाला कबूतर अपनी प्रिया के चारों तरफ धीरे-धीरे नाच रहा है । । ९ ।
(१) आर्यपुत्र ! कियदद्य गन्तव्यम् ?
१. ख. ग. यतोयं ।
२. क. कांतामंतरुत ।
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