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पञ्चमोऽङ्कः
१३५ दमयन्ती- (सास्र विचिन्त्य) (१) अज्जउत्त! पुव्वचिंतिदं 'पिच्छ कहं सव्वं पि अन्नहा जायं! राजा- देवि!
अर्वाग्दृष्टितया लोको यथेच्छं वाञ्छति प्रियम्।
भाग्यापेक्षी विधिदत्ते तेन चिन्तितमन्यथा।।७।। अपि च देवि! मा स्म विषीद सर्वमपि शुभोदकं भविष्यति।
अस्तमयति पुनरुदयति पुनरस्तमुपैति पुनरुदेत्यर्कः।
विपदोऽपि सम्पदोऽपि च सततं न स्थास्नवः प्रायः।।८।। दमयन्ती- (परिक्रम्य सखेदम्) (२) अज्जउत्त! परिस्संतम्हि ता खणं वीसमिस्सं।
दमयन्ती- (अश्रुपूर्ण नेत्रों से विचार करके) आर्यपुत्र! देखिये, पहिले की सोची गई सारी बातें किस प्रकार से विपरीत हो गईं (अर्थात् सोचा था क्या और हो गया क्या)?
राजा- देवि!
नीचे की दृष्टि (अर्थात् अपने विचार) से (तो) मनुष्य (अपनी) इच्छानुसार अभिलषित वस्तु (सुख) को चाहता है, (किन्तु) भाग्य की अपेक्षा करने वाला विधाता (तो उस) सोची गई (वस्तु) को उससे भिन्न (रूप में) ही देता है।।७।। ____ और भी देवि! विषाद न करें सब कुछ शुभ फल को देने वाला होगा (अर्थात् सभी का अन्त आनन्ददायक होगा)। (क्योंकि)
__ (जिसप्रकार) सूर्य अस्ताचल को जाता है पुनः उदय लेता है, पुनः अस्ताचल को प्राप्त करता है (और ) फिर उदित होता है। (उसीप्रकार) प्रायः विपत्ति (दुःख) और सम्पत्ति (सुख) भी निरन्तर स्थायी रहने वाली नहीं है।।८।।
दमयन्ती- (घूमकर के खेद के साथ) आर्यपुत्र! मैं थक गयी हूँ इसलिए क्षणभर आराम करूँगी।
(१) आर्यपुत्र! पूर्वचिन्तितं पश्य कथं सर्वमप्यन्यथा जातम्!
(२) आर्यपुत्र! परिश्रान्तास्मि ततः क्षणं विश्रमिष्यामि। १. ख. ग, पिच्छमहं।
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