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________________ १३४ नलविलासे (सर्वे मन्दं रुदन्ति) राजा- देवि! अतिकालो भवति। प्रयतस्व देशान्तरगमनाय। दमयन्ती- (सरभसमुत्थाय) (१) एसम्हि पगुणीभूदा। राजा-(कलहंसादीन् प्रति) अनुजानीत मां सुकृतं दुष्कृतं वाऽनुभवितुम्। __ (सर्वे सास्रं प्रणम्य निष्क्रान्ताः) देवि! कमध्वानमुतिष्ठामि? दमयन्ती- (२) विदब्माणुजाइणं। राजा- इत इतो देवी। (उभो परिक्रामत:) - (सभी मन्द स्वर में रोते हैं) राजा- देवि! बहुत देर हो रही है। अन्य देश को जाने के लिए तैयार हो जाओ। दमयन्ती- (शीघ्रता से उठकर) यह मैं तैयार हो गयी हूँ। राजा- (कलहंस, खरमुख और मकरिका से) (आप सभी) मुझे अच्छे या बुरे (सुख या दुःख) का अनुभव करने के लिए आज्ञा दें। (सभी अश्रुपूर्ण नेत्रों से प्रणाम करके निकल जाते हैं) देवि ! किस मार्ग का अनुसरण करूँ? दमयन्ती- विदर्भदेश को जाने वाले। राजा- इधर से देवी इधर से। (दोनों परिक्रमा करते हैं) (१) एषाऽस्मि प्रगुणीभूता। (२) विदर्भानुयायिनम्। १. क. कमः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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