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________________ १३३ पञ्चमोऽङ्कः दमयन्ती-(१) जं भोदि तं भोदु, अहं दाव आगमिस्स। राजा-कलहंस! मर्षयितव्यं यदस्माभिः प्रभवान्धैः किमप्यपराद्धम्। वयस्य खरमुख! सर्वदा क्रीडासचिवोऽसि नः ततस्त्वयाऽस्माकमुपहासादिकं सोढव्यम्। मकरिके! त्वदीयस्य दमयन्तीघटनाप्रयासस्य तदीदृशमवसानमभूत्। दमयन्ती- (२) पियसहि मयरिए! कुंडिणं गडूय अंबाए तादस्स स एस पवासवुत्ततो विनवेयव्वो। मकरिका- (शस्रम्) (३) भट्टिणि! न सक्केमि अत्तणो मुहं दंसि,, ता कुंडिणं न गमिस्सं। दमयन्ती-(४) अज्ज खरमुह! सहि मयरिए! अहं तुझेहि सुमरिदव्या (कलहंसं प्रति) महाभाय! अणुजाणाहि मं वणयरिं भवितुं। दयमन्ती- जो होना है सो होवे, मैं तो आपके साथ ही जाऊँगी। राजा- कलहंस! प्रभुता के मद में हम (लोगों) ने जो कुछ अपराध किया है। (उसके लिए) क्षमा करें। मित्र खरमुख! (तुम) सदैव हमारे क्रीड़ा-सहचर रहे हो। इसलिए तुम्हें हमारे (द्वारा किये गये) उपहासादि को सहन करना चाहिए। मकरिके! तुम्हारे द्वारा दमयन्ती-मिलन (प्राप्ति) के लिए किये गये प्रयत्न की समाप्ति इस प्रकार से हुई। दमयन्ती- प्रिय सखि मकरिके! कुण्डिन (नगरी) जाकर माता और पिता को हम लोगों के प्रवास की घटना को बता दो। मकरिका- (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) स्वामिनि! (मैं) अपना मुख दिखा नहीं सकती, इसलिए कुण्डिन (नगरी) नहीं जाऊँगी। दमयन्ती- आर्य खरमुख! सखि मकरिके। तुम लोग मुझे याद रखना। (कलहंस के प्रति) श्रीमान्! मुझे वनचरी (वन में चलने वाली) होने की आज्ञा दें। (१) यद् भवति तद् भवतु, अहं तावदागमिष्यामि। (२) प्रियसखि मकरिके! कुण्डिनं गत्वाऽम्बायाः तातस्य चैष प्रवासवृत्तान्तो विज्ञपयितव्यः। ___ (३) भर्ति! न शक्नोम्यात्मनो मुखं दर्शयितुम्, तत् कुण्डिनं न गमिष्यामि। (४) आर्य खरमुख! सखि मकरिके! अहं युष्माभिः स्मर्तव्या। महाभाग! अनुजानीहि मां वनचरी भवितुम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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