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नलविलासे गन्तुमुचितम्। तदनुजानीतास्मान् देशान्तरगमनाय। श्लथयत मेहबन्यम्। कुरुत निर्दयं हृदयम्। न क्षमामहे राज्यभ्रंशधूसरं परिचितपौराणामास्यं दर्शयितुम्। ब्रजामः कामप्येकां दिशम्। (अग्रतः कृत्वा) देवि! दुर्विषहवातशीतातपक्लेशकारीणि प्रान्तराणि। राज्यभ्रंशेन विगतपरिच्छंदवाहना वयम्। न शक्ष्यति भवती क्रमितुमशिक्षितपादचारा करालव्यालशैलसङ्कटासु वनभूमिषु। तद् विधेहि मे वचनमवलम्बस्व दीर्घदर्शितामिहैव कूबरान्तिके तिष्ठ पितृगृहं वा व्रज। (सर्वे तारस्वरं रुदन्ति) किमेतेन प्राकृतप्रकृतिसब्रह्मचारिणा चेष्टितेन? ननु धैर्यमवलम्ब्य समयोचितमाचरत।
दमयन्ती-(१) अज्जउत्त! अहं इध ज्जेव चिट्ठिस्सं। पाणा उण अज्जउत्तेण समं आगमिस्संति।
कलहंसः- (प्रणम्य) अनुव्रजतु देवी देवम्।
राजा- अनुव्रजतु नाम परं परमक्लेशमनुभविष्यति। अनुरूप ही चलना उचित है। अतः अन्य-स्थान को जाने के लिए मुझे आज्ञा दें। प्रेम का बन्धन शिथिल करें। हृदय को कठोर बना लें। राज्य के नाश से मलिन (मुख वाला) मैं परिचित नगरवासियों को (अपना) मुख दिखाने में समर्थ नहीं हूँ। (सम्मुख होकर) देवि! कष्ट से सहन करने योग्य हवा, ठण्ड, गर्मी आदि से कष्ट कारक (यह) लम्बा और सुनसान मार्ग है। राज्य के नाश हो जाने से नौकर-चाकर, वाहनादि से रहित हम हैं। पैदल चलने में अपटु तुम इस भयंकर हिंसक जीव-जन्तुओं, पर्वतों से अगम्य वन की भूमि में चलने में समर्थ नहीं हो। इसलिए मेरी बात मानो, दूरदर्शिता का अवलम्बन करके यहीं( निषधनगरी में ही) कूबर के समीप ठहर जाओ अथवा पिता की नगरी विदर्भदेश चली जाओ। (सभी उच्चस्वर से रोने लगते हैं) सुख-दुःख में समान रहने वाले स्वाभाविक रूप से सहानुभूति रखने वाले (आप लोगों का) यह व्यवहार क्यों। (आप लोग) धेर्य धारण कर परिस्थिति के अनुकूल आचरण करें।
दमयन्ती- आर्यपुत्र! मैं यही ठहरूँगी। किन्तु प्राण तो आर्यपुत्र के साथ ही जायेंगे (अर्थात् मेरा मृत शरीर ही यहाँ रहेगा प्राण तो आप के साथ ही निकल जायेगा)।
कलहंस- (प्रणाम करके) देवि! महाराज का अनुगमन करें।
राजा- (अच्छा) अनुगमन करें (ठीक है), परन्तु बहुत अधिक कष्टानुभूति होगी।
(१)आर्यपुत्र! अहमिहैव स्थास्यामि। प्राणा: पुनरार्यपुत्रेण सममागमिष्यन्ति।
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