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पञ्चमोऽङ्कः (कलहंसः प्रणम्य सास्रमधोमुखस्तिष्ठति) राजा- (कलहंसं प्रति)
मा विषीद कृतं वाष्पैः फलं मर्षय कर्मणाम्।
सत्यं विषाद-शोकाम्यां न दैवं परिवर्तते।।५।। कलहंस:- (बाप्यमवधूय) देव! सुमहान् मानभङ्गः कृतः कूबरेण। राजा- (साक्षेपम्) न कूबरेण कृतः किन्तु वेधसा।
अहंयूनामहङ्कारं वारिदानां समुन्नतिम्।
विना विधिमृते वातं हन्तुं को नाम कर्मठः?।।६।। कलहंसः- (प्रणम्य) अनुयानाय मामनुजानातु देवो विदूषकमपि।
राजा- देवीमपि मुमुक्षरहं परमियमबलाऽऽग्रहेण मामनुगच्छति। अपि च सर्वस्वपणेन मां कूबरो जितवान्। ततः पथि पथिकवृत्त्यैव
(कलहंस प्रणाम करके, अश्रुपात पूर्वक अधोमुख हो जाता है) राजा- (कलहंस से)
शोक मत करो, रुदन बन्द करो और कर्म से उत्पन्न फल को सहन करो (भोगो)। क्योंकि शोक और रुदन के द्वारा भाग्य को नहीं परिवर्तित किया जा सकता है।।५।।
कलहंस- (अश्रु पोंछ करके) महाराज! कूबर ने बहुत बड़ा अपमान किया है। राजा- (आक्षेप के साथ) कूबर ने नहीं, अपितु विधाता ने किया।
अहंकारियों के अहंकार को विधाता के बिना (और जल बरसाने वाले) मेघों की वृद्धि को वायु के विना नष्ट करने में कौन समर्थ हो सकता है।।६।।
कलहंस- (प्रणाम करके) महाराज! अपने पीछे चलने के लिए मुझे आज्ञा दें और विदूषक (खरमुख) को भी।
राजा- मैं तो देवी दमयन्ती को भी छोड़ना चाहता हूँ, परन्तु यह अबला अपनी दृढ़ भक्ति के कारण मेरे पीछे चल रही है। और भी, कूबर ने (धूत-क्रीड़ा में) पासे से मेरी सारी सम्पत्ति जीत ली है। इसलिए मार्ग में पथिक (बटोही) के आचरण के
टिप्पणी- 'अहंयु'- 'अहंकारवानहंयुः' इत्यमरः।
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