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नलविलासे
(ततः प्रविशति ) राजा, दमयन्त्यादिकश्च परिवार: )
राजा - (सावष्टम्भम्) देवि! मा रोदी: प्रशस्तलक्षणा भवती । न खलु ते पतिरभूत्या भूपतिर्विश्राम्यति । व्यसनोपपातश्चायमनागतायाः सम्पदः पदम् ।
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उभयाभिमुख्यभाजां सम्पत्त्यर्थं विपत्तयः पुंसाम् । ज्वलितानले प्रपातः कनकस्य हि तेजसो वृद्ध्यै । । ४ । ।
( दमयन्ती मन्दं मन्दं रोदिति)
विदूषकः- ( विलोक्य) (१) भट्टा! कलहंसो पणमदि ।
राजा - (सखेदम्) खरमुख ! भर्तेति पदमन्यत्र सङ्क्रान्तम्, तदिदानीं नलेत्येवमामन्त्रणपदमर्हामि । प्रणमतीत्यप्यवस्थाविरुद्धमनुच्चारणीयम् । कलहंसः सभायातोऽस्तीत्येवमेव रमणीयम् ।
(इसके बाद दमयन्ती आदि परिवार और राजा नल प्रवेश करता है)
राजा - (दृढ़ता के साथ) देवि ! विलाप मत करो, तुम (तो) विशिष्टशुभ का सूचक हो । निश्चय ही तुम्हारा पति हुये बिना भूपति हुए विश्राम नहीं करता है । पराजय और मुसीबत (अप्रत्याशित घटना ) यह आने वाली समृद्धि का चिह्न है।
दोनों (सुख और दुःख) के उपस्थित होने पर (उसका ) भोग करने वाले पुरुषों की विपत्तियाँ (उनकी) समृद्धि के लिए ही होती हैं। क्योंकि प्रज्वलित अग्नि में स्वर्ण का गिरना ( उसकी ) दीप्तिवर्धन के लिए ही होता है ।।४।।
( दमयन्ती मन्द स्वर में विपाल करती है)
विदूषक - ( देखकर) स्वामि ! कलहंस प्रणाम करता है ।
राजा - ( खेद के साथ) खरमुख ! 'भर्ता' पद (तो) अन्यत्र चला गया, अतः अब नल इस नाम से ही सम्बोधित करने के योग्य रह गया हूँ। 'प्रणाम करता हैं', यह भी (मेरी) स्थिति के विपरीत उच्चारण कर रहे हो । कलहंस आये हुये हैं, यही 'वाक्य' सुन्दर है।
(१) भर्त: ! कलहंसः प्रणमति ।
१. क सावक्षेपं ।
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