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अपि च
पञ्चमोऽङ्कः
स्फुरन्त्युपायाः शान्त्यर्थमनुकले विधातरि । प्रतिकूले पुनर्यान्ति तेऽप्युपाया अपायताम् । । ३ ।
सर्वथा विधिरेवात्र कर्मण्यलङ्कर्मीणतामगमत्। अथवा दुरोदरचातुरीविन्निषधाधिपतिं विजेतुं कथमलम्भूष्णुरेष कूबरः ? खलु कृत्वाऽतीतशोचनम् । क एकः किल विधिविलसितविपाको मीमांस्यते । श्रुतं च मया यथा खरमुख - मकरिके अपि पुरीपरिसरारामवर्तिनो दमयन्तीसचिवस्य देवस्यान्तिकमधितिष्ठतः तदहमपि गच्छामि । ( इति परिक्रामति । विलोक्य) किमयं देवः क्षोणीपत्यपथ्यपथिकने- पथ्यपङ्किलस्तिलकतरुतले निविष्टस्तिष्ठति ? (सास्रम् ) कथमहमेतस्य दुरवस्थापातिनः स्वामिनः स्वमास्यं दर्शयामि ? तदित एव स्थानात् प्रतिनिवर्ते । यदि वा प्रवसन्तं स्वामिनमालप्य पावकप्रवेशेन निरन्तरभक्तिसमुचितमाचरामि ।
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और भी
विधाता के अनुकूल होने पर सभी प्रकार का प्रयत्न (कार्य का आरम्भ ) कल्याणकारी ही होता है, किन्तु विधाता के विपरीत हो जाने पर, तो वही प्रयत्न अमङ्गल का जनक हो जाता है ।। ३ ।।
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हर प्रकार से विधाता ने ही इस द्यूत-क्रीड़ा में इस भयानक स्थिति को प्राप्त कराया है। अन्यथा जुआ में पासे की चतुराई को जानने वाले निषधाधिपति नल को जीतने में वह कूबर समर्थ कैसे हो गया? व्यतीत बातों का चिन्तन करके ही क्या। निश्चय ही कोई अकेले भाग्य से उद्भावित पूर्वजन्म या इस जन्म के कर्म फल की मीमांसा (गहन विचार) नहीं कर सकता है और जैसा कि मैंने सुना है कि खरमुख और मकरिका दोनों नगर के समीपवर्ती उद्यान में स्थित दमयन्ती के सहचर महाराज नल के समीप ठहरे हुये हैं। तो मैं भी वहीं चलता हूँ ( ऐसा कहकर परिक्रमा करता है । देखकर के) क्या ये पृथ्वी पालक महाराज नल हैं, जो कुमार्गगामी पथिक की तरह मलिन-वस्त्र पहिने तिलक वृक्ष के नीचे ठहरे (हुये) हैं। (अश्रुपात करता हुआ) इस दुर्दशा को प्राप्त करने वाले स्वामी को मैं अपना मुँह कैसे दिखाऊँ। तो इस स्थान से ही वापस हो जाता हूँ। अथवा उक्त स्थान पर ठहरे हुये स्वामी नल से बात-चीत करके, अग्नि प्रवेश के द्वारा, (स्वामी के प्रति) अनन्य श्रद्धा रखने वाला मैं उचित आचरण करूँ ।
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