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________________ १२८ नलविलासे माहात्म्यं विभवः कला गुणगणः कीर्तिः कुलं विक्रमः सर्वाण्येकपदेऽपि येन परितो प्रश्यन्ति मूलादपि।।१।। न चैतदनात्मनीनमेव कर्म समाचरितं देवेन, किमुतासर्वजनीनम्। न नाम सँहिकेयोपरागे सवितैव केवलं क्लाम्यति, किन्तु तदधीनाशेषव्यवहारविशेषमखिलमपि काश्यपीवलयम्। किं नु पुरोहितप्रभृतिपौरलोकः शोकाकुलो 'द्यूतकर्मनिवारणाय प्रवृत्तः सकलराज्यदमयन्तीपणेन दीव्यता देवन समावधीरितस्तदपि न सतां चेतश्चमत्कारकारि। यतः तावन्मतिः स्फुरति नीतिपथाध्वनीना तावत् परोक्तमपि पथ्यतया विभाति। यावत् पुराकृतमकर्म न सर्वपर्व प्रत्यूहकारि परिपाकमुपैति जन्तोः।।२।। आवास (के साथ-साथ पुरुष का) उत्कृष्ट पद, सम्पति, मेधाविता, धर्म, यश, शौर्य आदि सभी एक ही क्षण में सर्वत्र जड़-मूल से विनष्ट हो जाते हैं।।१।। निःस्वार्थी (जो अपने ही लाभ के लिए कार्य करने का अभ्यस्त न हो) महाराज नल ने क्या अपने आश्रित जन को कष्ट नहीं पहुँचाया है? क्योंकि, राहु से ग्रस्त होने पर वह (राहु) केवल सूर्य को ही कष्ट नहीं देता है, अपितु सूर्य के आश्रित होने वाले समस्त प्रकार के कर्मों को करने वाले भूलोक-वासियों को भी वह कष्ट पहुंचाता है। शोकाकुल पुरोहितप्रभृति नगर वासियों के, नल को छूत-क्रीड़ा से रोकने के लिए प्रवृत्त होने पर भी, फिर भी सज्जनों के हृदय में आश्चर्य को उत्पन्न करने वाले सम्पूर्ण राज्य और दमयन्ती रूपी दाँव वाले पासा से जूआ खेलते हुए महाराज ने क्या (इन लोगों को) कष्ट नहीं पहुँचाया? अर्थात् निश्चित रूप से कष्ट पहुँचाया क्योंकि नीति के मार्ग पर चलने वाली बुद्धि तभी तक चमकती (रहती) है और दूसरे का कहा गया कल्याणकारी वचन दवाई की तरह तबतक शोभित होता है, जबतक कि सभी कार्यों में विघ्न पहुँचाने वाला पूर्वजन्म का कुकर्म परिपक्व होकर मनुष्य को फल देने के लिए उपस्थित नहीं हो जाता।।२।। टिप्पणी- 'काश्यपी' - "धराधरित्री धरणी क्षोणी ज्या काश्यपी क्षितिः।" इत्यमरः । १. क. द्यतनि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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