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नलविलासे
विन्यस्याभिनवोदये श्रियमयं राज्ञि प्रतापोज्झितो द्यूतस्य व्यसनीव धूसरकरः सत्रुट्यदाशास्थितिः । निद्रायद्दललोचनां कमलिनीं सन्त्यज्य मध्येवनं क्रामत्यम्बरखण्डमात्रविभवो देशान्तरं गोपतिः । । २४ । ।
वसुदत्तः - (विमृश्य सविषादम्) देव! भ्रष्टराज्यस्य स्ववधूं परित्यज्य वरस्य देशान्तरगमनमावेदयति सन्ध्यासमयवर्णनव्याजेन मागधः ।
राजा शान्तं शान्तं स्वस्ति स्तात् । प्रतिहतजगत्त्रयदुरिततान्तिः सकलदेवताधिचक्रवर्ती देवः श्रीशान्तिः शिवतातिरस्तु वधूवरस्य ।
अमात्यः - कृतमनिष्टशङ्कया । एहि विवाहकृत्यानि चिन्तयितुं व्रजामः । (इति निष्कान्ताः सर्वे) । । चतुर्थोऽङ्कः । ।
जुआ रूपी रोग से ग्रस्त क्षीण आशा वाले जुआरी की तरह (सूर्य पक्ष में) मलिन किरणों वाले (राज पक्ष में दूषित हाथ वाला) अपने प्रताप (राज पक्ष में कोष, दण्ड, तेज) को त्यागकर नवीन अभ्युदय को प्राप्त करने वाले इस राजा (सूर्य पक्ष मेंचन्द्रमा, (राजपक्ष में कूबर) में लक्ष्मी (सूर्य पक्ष में- शोभा, राज पक्ष में- राज्यश्री) को स्थापित कर अर्थात् सौंप करके (सूर्य पक्ष में) संकुचित पत्र रूपी नेत्रों वाली कमलिनी (कमल वृक्ष) (राज पक्ष में- गाढ़ निद्रा वाली दमयन्ती) को जल के मध्य (राजपक्ष में- वन के मध्य) छोड़कर के आकाश का एक खण्ड (पश्चिम दिशा) ही धन है जिसका ऐसे भगवान् सूर्य (राज पक्ष में- राजा) अस्ताचल (राजपक्ष मेंदूसरे देश ) को जा रहे हैं । । २४ । ।
वसुदत्त - (विचार कर खेद के साथ) महाराज ! बन्दीजन सन्ध्या समय के वर्णन राज्यभ्रष्ट (नष्ट) होने का और अपनी वधू (दमयन्ती) को त्याग करके वर (नल) के अन्य देश- - गमन की सूचना दे रहा है।
राजा - अमङ्गल का नाश होवे, कल्याण होवे । तीनों लोक के कष्ट को दूर करने वाले समस्त देवों में देवाधिदेव भगवान् शङ्कर शान्ति करें, वर-वधू का कल्याण
करें ।
अमात्य - अनिष्ट की आशंका न की जाय। आयें हमलोग विवाह रूपी मंगल कार्य की मन्त्रणा के लिए चलें ।
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(यह कहकर रङ्गमञ्च पर से सभी चले जाते हैं)
।। चतुर्थ अङ्क समाप्त । ।
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